Hindi Poetry

ज़हरीली

सुना था ज़िन्दगी चार दिन का मेला है
फिर इंसान अकेला है
पर इस दिल ने कभी माना नहीं
अपनों के सुख दुख रेलमपेल में
ठसे हुए भी इतराती रही
कोई न कोई गीत गुनगुनाती रही
क्षितिज की कल्पना कर मुस्कुरा लिया
बादल बिजली की आहट में
तन मन भिगो आसुंओं को भगा दिया
होंठों पर खूब हंसी सजाई
ठहाकों की खिसीयाहट में दिल बहला लिया
मोम सी मुलायम शमा बन जलती रही
पत्थर सी सख्त पल पल दरकती रही
पर कदम थक चले कंकड़ों ने हार न मानी
भागूं भी कैसे मेरी परछाईं ही ज़हरीली ठहरी
Anupama

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