सुना था ज़िन्दगी चार दिन का मेला है
फिर इंसान अकेला है
पर इस दिल ने कभी माना नहीं
अपनों के सुख दुख रेलमपेल में
ठसे हुए भी इतराती रही
कोई न कोई गीत गुनगुनाती रही
क्षितिज की कल्पना कर मुस्कुरा लिया
बादल बिजली की आहट में
तन मन भिगो आसुंओं को भगा दिया
होंठों पर खूब हंसी सजाई
ठहाकों की खिसीयाहट में दिल बहला लिया
मोम सी मुलायम शमा बन जलती रही
पत्थर सी सख्त पल पल दरकती रही
पर कदम थक चले कंकड़ों ने हार न मानी
भागूं भी कैसे मेरी परछाईं ही ज़हरीली ठहरी
Anupama
Recent Comments