कभी अचानक आप कुछ ऐसा पढ़ बैठते हैं कि मन के किसी कोने से आवाज़ आती है कि कैसे लिखा होगा उसने ये सब.. क्या सिर्फ मलाल, क्या सिर्फ याद, क्या सिर्फ पछतावा या फिर बस ज़िंदगी!
बात कर रही हूं अमृता प्रीतम की लिखी “यह कहानी नहीं” की.. जी, यही नाम है इस कहानी का.. जहां अ और स, मिलते हैं, बातें करते हैं, सपने देखते हैं और फिर बिछुड़ जाते हैं, बिना कुछ कहे, बिना कुछ सुने.. शायद उनके मन समझते हैं पर मौन रह जाते हैं..
अ विवाहिता है, एक बच्चे की मां भी.. स पर कोई बन्धन नहीं, और अ को अपना बन्धन तोड़ने से ऐतराज़ नहीं.. पर फिर भी स कभी अ को ऐसा करने के लिए कहने की हिम्मत नहीं कर पाता और अ बिन स के ऐसा कहे, कुछ कर नहीं पाती..
दोनों अपनी अपनी ज़िंदगियां जीते चलते हैं, कर्तव्य निभाते हुए.. नियति उन्हें एक दूसरे से मिलने के बराबर मौके देती है, पर वे कभी अपने ख़्वाब को हकीकत में ढाल नहीं पाते.. कारण शायद कुछ और नहीं, बस खुद पर अविश्वास और साथी की अधिक चिंता..
अमृता प्रीतम की इस कहानी को पढ़ते हुए, बहुत ही आसानी से समझा जा सकता है कि वे अपनी और साहिर की ही दास्तां सुना रही हैं.. उनके दिल में दबी बुझी वो चिंगारी, जो कभी मुकम्मल रिश्ते का जामा ओढ़ न पाई, उसे एक अफसाने में ढाल रही हैं.. क्यों, कैसे, किसकी गलती, किसकी ख़ामी, कौन जाने पर हां अंत वही है, एक अधूरा रिश्ता, जो सड़क पर मिला और घर तक न पहुंचा..
इस कहानी में सड़क और घर के बिम्ब को बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल किया गया है.. हर बार दोनों टकराते हैं.. लोग उनकी मुलाक़ात को सहज होकर नहीं देख पाते, पर वे दोनों एक दूसरे के साथ होने को छुपाना ज़रूरी नहीं समझते.. एक अजब सी तनातनी है, जहां दोनों में झिझक बातों को लेकर नहीं, रिश्ते को अमली जामा पहनाने को लेकर है..
कैसे दो दिल, एक ही बात चाहते हुए भी, एक दूसरे की पहल के इंतजार में, सारी उम्र गुज़ार देते हैं, उस बेमतलब की जद्दोजहद, उस अदृश्य द्वंद्व को लेकर है.. कहानी एक मोड़ से दूजे मोड़ तक, दोनों को साथ लिए चलती है और फिर एक सपाट सड़क पर खत्म हो जाती है.. ठीक वैसे ही जैसे उनके जादू का घर, पत्थर चूने की बहुतायत के बावजूद, कभी खड़ा नहीं हो पाता!
वैसे कितनी ही बार होता है न कि फैसला लेने में इतनी देर हो जाए कि फैसला लेने की इच्छा ही खत्म हो जाए, कुछ ऐसा ही भाव बिखरा है इस कहानी में, जो मुझे सचमुच कहानी नहीं, लेखिका की अपनी दास्तां लगी..
एक बार को लगा कि नायक नायिका को अ और स कहने की बजाय, नाम दिए जाते तो बेहतर होता.. पर फिर दिल ने दूसरे ही पल ये ख़्याल झटक दिया, कभी कभी अनाम छोड़ देना ही बेहतर होता है.. हालांकि ज़िंदगी कितनी अधूरी और मौत कितनी पूरी है, ये भी हमें ठीक से कहां पता.. फिलहाल तो बस एक कहानी जो कहानी नहीं के, रस में डूब उबर रही हूं.. ये असर शायद देर तक रहेगा.. अनुपमा सरकार
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