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यह कदंब का पेड़

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे॥

ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली॥

तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता॥

वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता॥

सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता “यह कदंब का पेड़” से भला कौन नहीं परिचित! अपने बचपन में पढ़ी सुनी इस कविता को रिकॉर्ड करने की इच्छा बहुत दिनों से मन में थी।

मेरे शब्द मेरे साथ ने मेरे इस सपने को भी साकार किया। परसों ही वीडियो अपलोड किया। मन प्रसन्न हुआ

यह कदंब का पेड़

पर इसके साथ साथ ही मैंने ये भी समझा कि ये कविता यूं ही मेरी फेवरेट नहीं। इसमें बिम्ब से लेकर शब्द संयोजन तक, मात्रा से लेकर मिथक तक, कविता लेखन की हर छोटी बड़ी बात का बखूबी ध्यान रखा गया है। आखिर जबलपुर स्कूल ऑफ पोएट्री की प्रसिद्ध कवयित्री यूं ही तो हम सब की चहेती नहीं। अनुपमा सरकार

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