“घर का काम नहीं करेगी, तो उसे लायी किसलिए हूँ?” तल्ख़ मिज़ाज़ी से उसने कहा.. हम सब थोड़ा सा अचकचाये, फिर कह ही दिया कि इस बात के लिये नहीं होती बेटे की शादी.. इस पर उनका दूसरा पत्ता, “जब मैं ब्याह कर आयी, मैं भी तो करती थी… और मेरी बेटी बेचारी तो बहुत पढ़ाई करती है, वो घर का काम थोड़े ही करेगी”
ज़रा देर लगी समझने समझाने में कि जैसे बेटी पढ़ने में व्यस्त है, वैसे ही तो बहू भी नौकरी में है, उस से भी कभी चूक हो ही सकती है… दोहरा रवैया क्यों रखना भला..
घर के काम करने में न कोई बुराई पहले थी न अब है, गृहिणी की कुशलता बेशक़ घर को निखारती है… पर बहू से हर महीने सैलरी की अपेक्षा रखते हुए, वंश को आगे बढ़ाने का उत्तरदायित्त्व निभाते हुये, बेटे को पति परमेश्वर की तरह पूजते हुये भी.. ज़रा सी गलती होने पर इस तरह कड़वा बोल… किसी तरह जायज़ नहीं… हाउज़ वाइफ हो या कामकाजी, सबसे पहले परिवार की सम्मानित सदस्य है, बहू… बिल्कुल आपके बेटे और बेटी की ही तरह…
अनमने ढंग से ही सही, चार लोगों के समझाने पर, गोल गोल घुमा कर उन्होंने आखिर स्वीकार किया कि बेटी बहू दोनों बराबर होनी चाहिएं… अब कितना असल जीवन में बरता जायेगा, मालूम नहीं…. पर हाँ, ज़रूरत है, सोच बदलने की और इसके लिये सिर्फ एक दिन women’s day मनाना काफी नहीं… वरन् हर वक़्त खुद के और दूसरों के रूढ़िवादी फैसलों पर सवाल उठाना होगा… परिवर्तन गुस्से या अकड़ से, समाज को विभाजित करते हुये सम्भव नहीं होता… इसके लिये तो स्त्री पुरुष दोनों के मज़बूत कंधे चाहिये
#WomensDay
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