लाल ईंटों की दीवार, टूटा-फूटा कूलर, बाल्कनी में धूल चाटता पुराना फर्नीचर। किसी आम मध्यम वर्गीय परिवार का ही लगता था वो घर।
पर नहीं, कुछ तो खास था उसमें। आते-जाते लोगों की नज़र अक्सर उलझ जाती थी। गली का सबसे अनोखा मकान था वो, जामनी घर के नाम से मशहूर! पूरा मकान साधारण लाल ही था, बाकियों की तरह, पर एक खिड़की थी, ठीक गली के बीचोंबीच खुलती, चटख जामनी रंग से सजी।
अमूमन ऐसा कौन रंगता है खिड़कियों को, नज़र तो उलझनी ही हुई। मोहल्ले वाले सनकी कहते थे उसे। सबसे अलग-थलग, अपनी ही दुनिया में खोया रहता। पूरा मकान टूटने के कगार पर था, और ये भाई साहब रिपेयर कराते तो बस एक वही खिड़की। हर छह महीने बाद उसे पेंट किया जाता, रोज़ झाड़-पोंछ की जाती, मानो कोई अनमोल मोती जड़े हों, उस अजीब सी खिड़की में।
बस, साल में इक बार गुमान होता था सबको अशोक की कलाकारी पर। बसंत जाते-जाते मकान के चारों ओर जकरंदे के फूल खिलने लगते। पूरा घर निखर उठता, जामनी छटा में और तब वो खिड़की अटपटी नहीं, इस खूबसूरत नज़ारे की धुरी सी लगती थी, नई नवेली दुल्हन सी सजी धजी।
आखिर, इन कुछ हफ्तों के लिए ही तो करता था वो इतनी मेहनत। नीलिमा को याद करके आहें भरता। मानसपटल पर उभर आते वो सुनहरे दिन, जब मुहब्बत अपने अंजाम से चंद कदमों की दूरी पर थी और नीलिमा और अशोक दुनिया की सबसे सुखी जोड़ी।
हंसते-खिलखिलाते अपने हाथों से रोपा था उसने जकरंदे का नन्हा पौधा और ठहाके मारकर कहा था, ये हूँ मैं – खूबसूरत, आकर्षक, मनचली! पूरी दुनिया बस में कर लूँ खिलते ही, पेड़ की सबसे ऊंची डाली से लेकर सड़क तक जामनी रंग सकती हूँ इन फूलों से। तुम्हारे अशोक की पत्तियों सी नहीं, कि चुपचाप खड़ी रहें हमेशा।
तब कौन जानता था कि ये अशोक बिन फले-फूले यूं ही तटस्थ खड़ा रह जाएगा, जकरंदे की कलियों को खिलते देखने की चाहत लिए और ज़िंदगी अपने मुकाम तक पहुँचने से पहले ही ढेर हो जाएगी, पीछे छोड़ उम्मीद की बस एक खिड़की !!
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