Fiction / My Published Work

वो अक्तूबर

अक्तूूबर महीने के आते आते करमा अधीर हो उठता। बगिया में गुलाबों की गुढ़ाई होती, सारे माली क्यारियों में पनपती पौध देख कर गर्व से सीना फुलाये घूमा करते और ये अनमना सा एक कोने में बैठा आंसू बहाता ।

आँखों से कम दिखता था और कानों से तो लगभग बहरा ही था, चलता भी लाठी टेक कर। उम्र के हिसाब से कब का रिटायर हो गया था पर बड़े साहब उसकी बागबानी के कायल थे और कहीं न कहीं उसके झुर्रियों भरे चेहरे के पीछे के दर्द को महसूस भी किया करते थे। जानते थे अकेला है दुनिया में। कोई संगी साथी रिश्ते नातेदार नहीं जो उसका सहारा बन सके। इसलिए जहां भी स्थानांतरित होते, उसे साथ ही ले जाते।

हाथों में भी जादू था उसके, मिट्टी उसके छूते ही सोना बन जाती। रसदार फलों और ज़ायकेदार सब्ज़ियों की कमी न होने पाती उन्हें कभी। पर बस एक ही बात असमंजस में डाल दिया करती थी और वो थी उसकी फूलों के प्रति उदासीनता। सर्दियों में जब पौधे सबसे अधिक देखभाल मांगते, करमा उनके प्रति लापरवाह हो जाता, वो भी खासकर गुलाबों के। कलमें काटने को तो कभी राज़ी न होता वो । चुपचाप एक कोने में जा बैठता, काम धाम सब दूसरों के हवाले छोड़ खुद जाने किस दुःख पर आंसू बहाता। जवान माली उसे खिसियाकर सनकी बुड्ढा बुलाते और मुंह मसोसकर उसके हिस्से की भी मज़दूरी कर देते। नियम सा बन गया था और ज़्यादा तू तू मैं मैं अब कम ही हुआ करती।

पर आज नज़ारा कुछ और ही था। करमा पर कोई भूत सा सवार हो गया था। । मालियों को पकड़ पकड़ झकझोर रहा था ‘गुलाबों को मत छूना, हाय लगेगी तुम्हें, किसी को उसकी मिट्टी से अलग न करो, पाप है पाप।’

सब सकते में थे। उसे रोकने की कोशिशें होने लगीं। किसी तरह जकड़ कर कोठरी में लिटाया और डॉक्टर को बुला लिया। धीमे धीमे उसकी छटपटाहट शांत होने लगी। कोरों से बस आंसू बहते रहे और वो बुदबुदाता रहा उस खौफनाक मंज़र को, जब 1947 अक्तूूबर की एक शाम अचानक ही उसके खेतों को सियासी चालों ने पराया बना दिया था। काँटों की मेढ़ रातोंरात उसके घर और खेतों के बीच खिंच आई थी। पड़ोसी मुल्क कश्मीर का एक हिस्सा अपने नाम कर चुका था और बेचारा किसान अपनी माँ जैसी ज़मीं से बाहर खड़ा तड़प रहा था।

करमा ज़िद्दी था। नई उग आई लकीर फांदनी चाही थी उसने। पर तभी एक हथगोला उसकी झोंपड़ी पर आ गिरा था और करमा हमेशा हमेशा के लिए अपने परिवार, अपनी सुनने की शक्ति और अपना वजूद खो बैठा। वो तो भला हो चौधरी साहब का, जो उसे अपने साथ दिल्ली ले आए और माली की सरकारी नौकरी दिलवा दी। समय के साथ ज़ख्म भरते रहे पर अपनी ज़मीन से बिछोह का दर्द उसके दिल से गया नहीं था। हमेशा शरणार्थी ही रहा वो और हर अक्तूूबर गुलाबों की ग्राफ्टिंग के साथ ही उसकी ये टीस उभर आती। कलमें कितने ही जतन से बनाओ, बिछुड़ती तो हैं ही न गुलाब से, अपनी ज़मीं छोड़ किसी और बाग़ में चले जाने को, और उसी शाम करमा भी चल दिया, इस दुनिया से उस दुनिया तक, जहां ज़मीनों पर नाम नहीं होते, न विस्थापना का दर्द, न बिछड़ने का डर !
Anupama
Published in Anthology Colors of Refuge

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