बरसों से वो धोबन मेरे घर आती है
गठरी में बंधे कपडे़ इस्त्री को ले जाती है
नाम नहीं जानती मैं उसका
शायद लाडो हो बचपन में या कोई देवी
पर मुझे हमेशा से बेटा कहकर ही बुलाती है
आज वो कुछ झुकी सी लगी
बाल भी कम थे सिर पर आंखें मीची सी
पेशानी पर लकीरें दो-चार और उभर आई थीं
पर चेहरे पर वही आत्मीयता बरकरार थी
उसे देख अचानक लगा समय किसी का नहीं
इसकी रफ्तार बुलेट ट्रेन सी है
पहले और आखिरी पड़ाव में खास अंतर नहीं
शायद वो मुकाम मुझे भी अब दिखने लगा है
जहां पहुंचने का ख्वाब भी पलकों ने महसूसा नहीं अभी !
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