Hindi Poetry

धोबन

बरसों से वो धोबन मेरे घर आती है
गठरी में बंधे कपडे़ इस्त्री को ले जाती है
नाम नहीं जानती मैं उसका
शायद लाडो हो बचपन में या कोई देवी
पर मुझे हमेशा से बेटा कहकर ही बुलाती है

आज वो कुछ झुकी सी लगी
बाल भी कम थे सिर पर आंखें मीची सी
पेशानी पर लकीरें दो-चार और उभर आई थीं
पर चेहरे पर वही आत्मीयता बरकरार थी

उसे देख अचानक लगा समय किसी का नहीं
इसकी रफ्तार बुलेट ट्रेन सी है
पहले और आखिरी पड़ाव में खास अंतर नहीं
शायद वो मुकाम मुझे भी अब दिखने लगा है
जहां पहुंचने का ख्वाब भी पलकों ने महसूसा नहीं अभी !

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