Hindi Poetry

वो वक़्त कुछ और था

वो वक़्त कुछ और था
ज़मीं के बाशिंदें नहीं थे ये
बालिश्त भर ऊंची सब्ज़ शाखों पे
सुर्ख फूलों के बीच सरसराते थेे

नशीली हवा की चुहलबाज़ी
परिंदों की दिलकश हंसी और
ओस की बूंदों में नहाई
नई नवेली सुबह
आह ! वो वक़्त ही कुछ और था

माहौल में रूमानियत की दौलत
और चेहरे पे जवानी का नूर
चमकीले लबों पे बूँदें यूँ मचलतीं
जैसे गुनगुनी सर्दियों की शर्मीली धूप

लचकती टहनियों की शरारती अदाएं
सिरहन दे जातीं
तिरछी मुस्कान, बेपरवाह अंगड़ाइयां
और ढेरों गलबहियां
रोज़मर्रा की आदत सी मामूली हुआ करतीं

हाँ कभी कभी कनखियों के दायरों से
जायज़ा ले लिया करते थे
उन सूखी चरमराती फुटपाथ पे बेतरतीब
बिखरी पत्तियों का
और उनकी बदनसीबी पे
एक ठंडी सांस छोड़ दिया करते
गिरे हुओं का हुआ भी कौन!

पर वो वक़्त कुछ और था
अब नसीब ने पलटा खाया है
हवा की शोखियों ने अभी अभी
इनको धूल में मिलाया है

हमें भी बस यूँ ही इक ख़्याल आया है
सम्भल के चलें जनाब!
उम्र है ही ऐसी वक़्त की देहलीज़ पे
दबी झुकी इक अदनी कनीज़
कहीं कहना न पड़ जाए
आह! वो वक़्त ही कुछ और था !! अनुपमा सरकार

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