Fursat ke Pal

इंतज़ार की घड़ियां

जब अंधकार हद से गुजर जाए सवेरा नज़दीक होता है। बड़े बूढ़ों ने कहा था। कभी आज़माया नहीं। उठ ही नहीं पाई कभी इतनी सुबह। चैन की नींद सोती रही न हमेशा। पर जब रात आंखों आंखों में गुज़रने लगे तो ऐसी सुनी सुनाई बातों पे ही विश्वास करने का मन करने लगता है। राहत सी मिलती है न ये सोच कर कि मंज़िल बस करीब ही है।

वैसे समय और दूरी में कुछ ज़्यादा अंतर नहीं। अंत हमेशा दूर ही लगता है। क्षितिज भी तो भ्रमित ही करता है न। धरती आसमां के मिलन का झूठा अहसास दिलाता। जो है ही नहीं उसका स्वप्निल उद्गार करता। कुछ यूं डूब जाता है इंसान, जो नहीं है उसे पाने में जैसे मृगतृष्णा की तरफ हौले हौले बढ़ता कोई आशावादी। अंत में निराशा तो हाथ लगेगी ही।

ये बात अलग है कि रेगिस्तान के बीचोंबीच उद्यान का स्वप्न भी साकार हो जाता है सही समय और जगह पर। ठीक उसी तरह जैसे पहाड़ की चोटी पर पहुंच विजय यथार्थ हो जाती है। सफ़र पूर्ण व फल की प्राप्ति।

कुछ समय और रखते हैं इस आशा को जीवित कि इंतज़ार बस खत्म होने को है और नयी शुरुआत होने को। कल क्या होगा कौन जाने पर आज तो उम्मीद करने में ही भलाई है।

तो करते हैं हम और आप थोड़ा और इंतज़ार!

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