असंवेदनाओं का दौर है…..
मैं सालों तक खुशवंत सिंह की Train to Pakistan पढ़ना अवॉयड करती रही.. डरती थी कि कहीं सेंसेशनलिज्म के नाम पर वे हिंदुस्तान पाकिस्तान के बंटवारे को तमाशा न बना दें.. पर फिर उस किताब का 50 वां एडिशन छपा और मैं अपनी जिज्ञासा रोक न पाई… पॉज़िटिव अस्पैक्ट ये कि खुशवंत ने उस दौर को बखूबी अपनी कहानी के बैकग्राउंड में इस्तेमाल किया.. उस वक़्त का द्वंद्व, दर्द, अत्याचार,उन्माद सब महसूस कर पाई.. पर तीखे राजनीतिक दंशों और प्रेम कहानी के सोपानों के बीच भी मानव गरिमा आहत होती न दिखी..
पर, उसी एडिशन में अवॉर्ड विनिंग फोटोग्राफर मारग्रेट बोर्क व्हाइट की बंटवारे के समय की तस्वीरें भी छपी थीं.. भूखे मेरी हुई मां के जिस्म से लिपटे बच्चे, दम तोड़ते, दाह संस्कार के बिना गलियों में सड़ती लाशें और किसी तरह जिस्म ढांपे लोगों की अधनंगी तस्वीरें… इन्हें देख मन खिन्न हुआ था.. क्या उन लोगों ने जो त्रासदी अपने जीवन में भुगती वही काफी नहीं थी, जो मरने के बाद भी उनकी इज्ज़त को सरे आम, कला और फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन के नाम पर आने वाले कई सालों तक, प्रदर्शित करने का जघन्य काम किया गया.. क्या ज़रूरत थी उन अभागों को उनके सबसे बुरे समय में फिल्माने की..
आज फिर उतना ही बुरा लग रहा है… तस्वीरें और विडियोज़ वायरल करते हम , हर घटना दुर्घटना की बारीकी से जांच पड़ताल करते हम.. हर बात के पक्ष और विपक्ष के धागे बुनते हम… किसी की मृत्यु के शोक की आड़ में पब्लिसिटी के लिए लालायित हम.. कुछ भी कैसे भी जोड़तोड़ कर, झूठी संवेदनाएं प्रदर्शित करते हम और फिर दूसरे ही पल अगली दुर्घटना को झपटते हम… कितने असंवेदनशील हैं हम?
मीडिया को कोसते कोसते, ये भूलते हम कि वो वही परोस रही है, जो देखना चाहते हैं हम… और कठपुतलियों की तरह उनके इस कृत्य में सहयोगी बनते हम…. क्या सचमुच कहीं कुछ मन को छुआ है या फिर ये उसी पाषाण युग की वापसी है, जब शासक के कहने पर किसी को सरेआम मौत के घाट उतारा जाता था और लोग तमाशे की तरह उसकी आखिरी सांसों को एंज्वॉय करने के लिए एकत्र हुआ करते थे…. दया भाव की तो क्या कहें, अजब सा रोमांच महसूस करती थी वो भीड़… आज फिर दिख रही है… हर तरफ, हर पल.. क्या यही हैं हम? सदियों बाद भी उतने ही क्रूर..
या फिर ये वेदनाओं का कोई नया दौर है?
Anupama Sarkar
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