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उजड़ा चमन

“ज़माना दिलों की बात करता है, पर मुहब्बत आज भी चेहरों से शुरु होती है”

“उजड़ा चमन” का ये डायलॉग सुनने में शायद घिसा पिटा लगे पर सच्चा है… गंजे हीरो और मोटी हीरोइन को लेकर बनी ये फिल्म शायद सिर्फ cliche लगे… पर ये कहानी सच्ची लगती है, कहीं न कहीं हम सबसे जुड़ी…

आख़िर होता तो यही है न… किसी के प्रेम प्रसंग विवाह से लेकर उसके करियर की उड़ान और सोसायटी में स्टेटस तक हम सब एक दूसरे को जज किए चलते हैं… शारीरिक बनावट, रंग, रूप, चाल ढाल, बोली, पहनावे, खानपान तक को वर्गों में बांटते हैं… इसे समाज की परिपाटी समझ हम सब कहीं न कहीं आंखें मूंद, इन्हीं बाहरी गुणों पर आंकलन करते हैं… आखिर यही देख सुनकर हम बड़े जो हुए हैं… लोगों के बीच रहते हुए, एक दूसरे का मज़ाक बनाना और खुद को मज़ाक बनने से रोकने के लिए भरसक प्रयत्न करना हम अनायास ही सीख जाते हैं… और फिर तब तक इसमें कुछ बुरा नहीं देख पाते, जब तक कि हम खुद निशाने पर न हों…

और निशाने पर न आ जाएं, इसकी कोशिश में कोई कोर कसर भी नहीं छोड़ते… कोई ताज्जुब नहीं कि एकाध नहीं, बल्कि ज़्यादातर फैसले इसी तर्ज पर लिए जाते हैं कि समाज में हमारा मज़ाक न बने, हम सम्मान के पात्र बने रहें, “नॉर्मल” कहलाएं… चाहे इसके लिए हमें अपनी इच्छाओं को कुचलना पड़े, किसी को नीचा दिखाना पड़े, किसी का दिल तोड़ना पड़े, सब स्वीकार्य है, बस नाक का सही जगह मज़बूती से अकड़े रहना ज़रूरी!

कितनी गज़ब है न ये बात, एक ऐसा अनलिखा नियम, जिसे मानने वाला हर इंसान दबता है, झुकता है, खीजता है और फिर औरों को जबरन उसी नियम से दबा झुका खिजा देखकर, बदले की भावना से ओतप्रोत हो, चैन की सांस लेता है… बहुत कम पल होते हैं, जब आप सचमुच बिना जज किए और हुए, किसी को स्वीकार कर पाते हैं… और शायद यही पल हमारी ज़िन्दगी के सबसे यादगार लम्हों में बदल जाते हैं!

अक्सर लोगों को जो प्यार नहीं मिला, उसके लिए आहें भरते देखा है… जिसके साथ विवाह कर चुके, उसके साथ होने की मजबूरी का बखान भी करते सुना है… और फिर एक झटके में ये कहकर खुद का बचाव करते भी, कि भई शादी वादी ऐसे ही हुआ करती है… मोल तोल ठोंक पीट कर… ये प्यार व्यार सब हवाई बातें! वही हवाई बातें जिनके लिए फिर उम्र भर तरसते हुए कह देना पड़े कि किताबों और फिल्मों में ही होते हैं ड्रीम्स पूरे, काल्पनिक कहानियां जो ठहरी… रियल लाइफ तो बोरिंग ही होती है…

पर जानते हैं, ऐसी ही एक औसत कहानी वाली फिल्म “उजड़ा चमन” दरअसल कहीं न कहीं बहुत सरल सहज ढ़ंग से समझा जाती है कि हमारी असुरक्षा की भावना ही, हमें मन की नहीं करने देती, समाज के बाड़े में बैठे रहने को मजबूर भेड़ बनाए रखती है… कोई हैरानी नहीं कि ऐसा इंसान और कुछ नहीं, बस गांठों का ढेर है… कितनी ही गांठें बचपन जवानी बुढ़ापे में इस मन में चुभती हैं… कदम दर कदम जाने कितनी ही बातें कचोटती हैं… जाने कितनी दफा हम खुद को आईने में देख भाग निकलते हैं… और जाने कितनी ही बार दबाव में आकर वो सब कहते सुनते करते हैं, जिसकी गवाही हमारा दिल कभी नहीं देता… हर मोड़ पर कुछ ऐसे फैसले हमारी प्रतीक्षा करते हैं जहां हमें सिर्फ अपने दिल की सुननी होती है और मन में पड़ी गांठ झट खुल जाती है… बस हम अक्सर हिम्मत ही नहीं कर पाते और एक और चोट, कचोट, गांठ इस तन मन को दे, थोड़ा और अंदर दुबक लेते हैं…

ये बात हर रिश्ते पर लागू होती है… पर चूंकि सबसे आत्मीय और स्वतंत्र सम्बन्ध एक स्त्री और एक पुरुष के बीच स्थापित होता है, ईमानदारी और खुलापन सबसे ज़्यादा ज़रूरी भी इसी रिश्ते के लिए है… एक ऐसा साथी जिसके सामने मन नग्न होने में शर्मिंदा न हो, आपकी गांठों को मोम की तरह पिघला देता है… शायद यही इस सम्बन्ध की सार्थकता भी है…

पर हमारे समाज में होता इसका ठीक उल्टा है… यहां जितनी कुंठा प्रेम और विवाह को लेकर है, शायद ही किसी और रिश्ते में हो… जात धर्म स्टेटस के नाम पर कत्ल हो जाते हैं और दहेज के नाम पर कुर्बानियां… तिस पर शादी में आए मेहमानों से लेकर दोस्तों तक के बीच धोंस बनाए रखने का प्रेशर अलग… लड़की देखने से लेकर बहू की मुंह दिखाई तक में तो बकायदा कमियां ढूंढने की पद्धति रही ही है, पुरुष भी इनके दुष्प्रभावों से बचे नहीं… कद काठी रुतबे पैसे को लेकर उन पर भी उतना ही प्रेशर… और इन सबके बीच पिसता वो कोमल भाव जिसे दो लोगों को महसूस करना था, जीना था… प्रैक्टिकल लाइफ में शहीद होता बेचारा मन और कुंठित होता इंसान… सच्चाई है… कोई कोरी कल्पना नहीं…

लिखने तो फिल्म पर बैठी थी, पर सच कहूं “उजड़ा चमन” में कुछ नया नहीं, पर जो भी है, इन सब ख्यालों को भरसक हवा दे गया… मन हो तो एक बार देखें… सनी सिंह कोई आयुष्मान खुराना या नसरुद्दीन शाह नहीं… न ही ये मूवी दम लगा के हाइशा या स्पर्श के कहीं करीब… फिर भी कुछ है जो ठीक उसी तरह छूता है, जैसे खुराना का मोटी बीवी को लेकर इंसिक्योर होना या नसीर का खुद के अंधे होने की कमी के अहसास की ज़िम्मेदारी शबाना पर डाल देना… फिल्में तो सिर्फ़ कहानियां होती हैं, पर भावनाएं – वो तो इसी मन में हैं न, रियल लाइफ में हमें डिस्टर्ब करती या फिर मोह लेती… उनके होने को स्वीकारना चुनौती भी और सुख भी… अनुपमा सरकार

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