मेरे आंगन में गुलाब और तुलसी का पौधा बिल्कुल सटे से हैं। बीते बरस साथ ही खरीदा था उन्हें, बित्ते भर की तुलसी, हाथ भर का गुलाब। दोनों में खूब छनती थी। हवाएँ एक सा असर करतीं। जब देखो, साथ में गुनगुनाते से दिखते थे।
खाद-पानी पाकर तुलसी खूब फलने लगी। जल्द ही हरे पत्तों से लद गई। गुलाब अभी जड़ें जमा रहा था। पत्तों से ज़्यादा कांटे उगा रहा था। तुलसी थोड़ी शैतान थी। चहकते हुए बोली, देख मेरे पत्ते कितने हरे और चमकीले हैं। रोज़ आती है अनु, चाय में डालने के लिए ले जाती है, प्यार से सहलाती भी है। तेरे कांटों में तो उसकी चुन्नी उलझ जाती है, खींच कर निकाल आगे बढ़ जाती है। गुलाब को गुस्सा आ गया, ज़ोर से ठुड्डा मारा तुलसी को, कांटों का असर दिखाया। अब तुलसी भी खीझ गई।
कुछ दिनों में सावन आया। तुलसी पर बीज लगने लगे। गुलाब भी ऊंचा लंबा जवान हो चला था, पर अब भी पत्तों-कांटों से ही भरा था। तुलसी को फिर शरारत सूझी। रातोंरात सारे बीज गुलाब के गमले में झाड़ दिए और आंखें मीचकर हंसी। पर नहीं जानती थी कि क्या नादानी कर बैठी।
कुछ ही दिनों में तुलसी की नई कोंपलें उग आईं, गुलाब की ज़मीन पर कब्ज़ा करने लगीं। उसके हिस्से का खाद-पानी भी चट कर जातीं। गुलाब के लिए कुछ बचता ही न था। तुलसी पछताने लगी, पर करती भी तो क्या। पत्ते हों या कांटे, उगाने आसान होते हैं, उखाड़ने बहुत मुश्किल।
महीने भर पहले ध्यान गया मेरा, गुलाब सूखकर आधा हो चला था। माली को बुलवाया। उसने तुलसी की पोलपट्टी खोल दी, गुलाब की क्यारियों से उखाड़ कर फेंक दी, गुड़ाई करके अलग की। अब मेरा गुलाब फिर मुस्कुराने लगा है। हृष्टपुष्ट हो गया है। कलियाँ भी खूब लगी हैं इस बार, लाल फूल भी दिखने लगे हैं। पर अब तुलसी कनमनी सी लग रही है, गुमसुम सी दिख रही है। और उधर कार्तिक की एकादशी मुंह बाए खड़ी है.
उफ! ये पौधे संभालने भी आसान कहां!!
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