Fiction / Fursat ke Pal

टूटन

बारिश, नाम ही काफी हुआ करता था.. चेहरे पर मुस्कान और कलम में जान आ जाया करती.. बूंदें धरती पर गिरें, उस से पहले ही दवात में समेट लेती.. मिट्टी की भीनी खुशबू, बादलों की गड़गड़ाहट, बिजली की चमक, झूम लेने का सबब हुआ करती थी..

सदाबहार के पत्ते हवा में खिलखिलाते और मैं आंगन में.. हमारे चेहरे भले अलग हों, पर बूंदें एक सी खिलती थीं दोनों पर.. फिसलने की परवाह नहीं, भीगने की फिक्र नहीं और टूटने का डर भी नहीं.. इन कोमल पत्तियों को मई की बारिश में, सूरज से लोहा लेते देखा है मैंने.. गिलहरी की चोट से, मैना की चोंच से बचते भी देखा है.. वो पड़ोस की बिल्ली रोज़ कूद जाया करती थी आंगन में, सीधे गमले में लैंड करती हुई.. कुछ टहनियां इधर बिदकती कुछ उधर लचकती.. पर न कभी सांस रुकी न आस चुकी.. इन पत्तियों का मुझसे पुराना नाता है, साथ बढ़े हैं हम, अपनी अपनी जान धूप में झोंकते हुए.. और फिर चन्द बूंदों के स्पर्श से लजाते, शरमाते, इठलाते हुए..

पर आज, न आज हालात कुछ और हैं.. बादलों की धमाचौकड़ी अब मुझे भाती नहीं, बिजली की चमक भी नहीं भरमाती.. पानी बरसे, उस से ज़रा पहले रस्सी पर सूखते कपड़े समेट लाती हूं.. उन्हें अनमने ढंग से तह लगा, एक रूखी नज़र पौधों पर डालती हूं.. सदाबहार की हालत भी कुछ मुझ सी ही है.. धूप में पक कर, पत्तियां गोल हो चुकीं.. कलियों का अता पता नहीं.. बिल्ली शायद कल परसों में कभी गमला खोद भी गई, जड़ ऊपर दिखने लगी है..

टकटकी बांध देखती हूं, बादलों का विस्फोट, सूरज की ओट, चटकते रिश्तों की चोट.. और फिर आंखें मूंद अपने संसार में लौट आती हूं.. न अब ये बारिशें मेरी नहीं, सदाबहार कहीं अंदर बहुत अंदर दरक चुकी… अनुपमा सरकार

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