ये ख्याल भी कितने शातिर होते हैं न!
आंखें मूंदते ही आनन फानन में घेर लेते हैं
इंद्रधनुष से सतरंगी घोड़ों पे सवार इठलाते हैं
अपने रसीले चटकीले आडंबरों से भरमाते हैं
ज्यों मुंह चिढ़ाते हों
आ पकड़ पकड़ न हमें
छू अपनी कलम से कर दे अमर।
जैसे ही हड़बड़ाकर आंखें खोलती हूँ
तितर बितर हो जाते हैं
कलम उठाते ही सरपट दौड़ जाते हैं
शरारती बच्चों से
छुप जाते हैं अपनी पारदर्शी कोठरियों में
जहां नज़र तो आते हैं हाथ नहीं आते।
हां कभी कभी कुछ पीछे छूट जाते हैं
वही पुराने वाले
जो ज़रा कमज़ोर पड़ गए हैं
बार बार बंधकर।
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