आसमानी रंग का बड़ा सा जापानी छाता और उसे लेकर इतराती छोटी सी बिनिया.. मंत्रमुग्ध से गांव वाले और लालच भरी नज़रों से छाते को ताकता नंदकिशोर खत्री चाय वाला..
जब मैंने ब्लू अंब्रेला देखनी शुरू की, तो केवल रस्किन बॉन्ड घूम रहे थे दिमाग में.. आखिर उन्ही की किताब पर आधारित है ये हिंदी मूवी, जो 2005 में रिलीज़ हुई थी.. मुझे लगा था बिनिया इसकी मुख्य पात्र होगी.. आखिर वही तो अपना जंतर देकर जापानी टूरिस्ट से वो छाता लाती है..
पर जैसे जैसे देखती गई, पंकज कपूर तेज़ी से उभरते गए.. एक बूढ़ा दुकानदार, जिसके लिए नफे नुकसान से भी ज़्यादा मन का सुकून मायने रखता है.. और गांव की ही तरह उसका ये सुकून भी बहुत छोटा सा है.. अचार की बरनी में ही निर्वाण ढूंढ लेता है नंदू..
हालांकि पूरा गाँव जानता है कि नंदू पर भरोसा करना बेकार है और उसके लिए पैसे ही मायने रखते हैं, फिर भी लालच इंसान को कितना नीचे गिरा सकता है, इसका अहसास उन्हें तब होता है जब नंदकिशोर खत्री छतरी चोर बन जाता है..
मुश्किल से डेढ़ घंटे की ये मूवी, इंसानी फितरत के बारे में बहुत कुछ कह गई.. किसी नई या अनोखी चीज के मिल जाने से बढ़ा रुतबा, उसके खो जाने पर किस क़दर दुख देता है, ये कोई बिनिया से पूछे.. लालच में अंधे होकर एक वयस्क कैसे शैतान में बदल जाता है, ये कोई नंदू से पूछे.. और अपने समाज में तिरस्कृत होकर, खून के घूंट पीते हुए जीना, कितना मुश्किल है, ये कोई खत्री छतरी चोर से पूछे.. शादी ब्याह में शामिल न करना, उसकी दुकान का बहिष्कार होना और मौके बेमौके लोगों के तंज का शिकार होना, इंसान को कितना तड़पाता है, इस फिल्म में बहुत ही साधारण पर असरदार तरीके से जतला दिया गया है..
कहानी, डायलॉग्स, सेटिंग्स.. बेहद मामूली.. पर विशाल भारद्वाज का कुशल निर्देशन, पंकज कपूर का ज़ोरदार अभिनय, और श्रेया शर्मा की मोहक छवि.. ब्लू अंब्रेला को एक यादगार फिल्म बनाने में सक्षम हुए हैं.. बच्चों के संसार की झलक दिखाती ये मूवी, हम बड़ों को ज़िंदगी का सबक सिखाने में पूरी तरह सफल होती है..
अब मन रस्किन बॉन्ड की किताब पढ़ने का है, शायद उसमें कुछ और आयाम दिखें… बहरहाल एक अलग फ्लेवर और कलेवर की फिल्म है The Blue Umbrella.. पसंद आयी..
Anupama Sarkar
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