उन्नत ललाट, तीखी नाक, ध्यान में लीन, कमल सरीखी आंखें, चेहरे पर तेज और असीम शांति का भाव.. मैंने जब भी बुद्ध की कल्पना की, यूं ही की.. शायद कुछ प्रभाव उनकी मूर्तियों और चित्रों को देखकर भी हुआ हो, पर जाने क्यों हमेशा महसूस हुआ कि जिसका मन दर्पण की तरह साफ हो, उसका चेहरा सुकून का प्रतिबिंब होगा ही…
हालांकि मैंने कभी बौद्ध धर्म के बारे में ज़्यादा पढ़ने की कोशिश नहीं की.. दूर से ही बुद्ध की धम्म परिचर्चा, साथियों के मुख से सुनकर, संतुष्ट होती रही
पर इस बार पुस्तक मेले में गई, तो डॉ गोरख प्रसाद मस्ताना जी की “तथागत” से खुद को दूर नहीं रख पाई.. मैंने उनकी कुछ साल पहले अाई पुस्तक “गीत मरते नहीं” पढ़ी थी और कहीं न कहीं मन ये विश्वास किए बैठा था कि मस्ताना जी अगर पद्य में कुछ रचेंगें तो वह पठनीय होगा ही… सो बस, इसी विश्वास के साथ “तथागत” को पढ़ना शुरू किया और अब शाम होते होते समाप्त करके ही उठी हूं
पुस्तक प्रबन्ध काव्य है, वस्तुतः प्रांजल हिंदी में छंद विधा में रचित… इसे 9 सर्गों या कहें अध्याय में बांटा गया है.. आरम्भ उद्देश्य से और अंत पावन स्मरण से…
पहले ही सर्ग में कवि अपनी मंशा को स्पष्ट करते हुए कहते हैं
“मेरा एक उद्देश्य जगत अमिताभ प्रभु को जाने
पहले से भी अधिक आस्था के संग उनको माने
प्रकृति के इस महापुरुष को अन्तर से पहचाने
चलें कृपा से उनकी अपना जीवन और सजा लें”
कहना न होगा कि यह उद्देश्य प्रेरणादायक होने के साथ साथ सहज सरल भाषा में पाठक के साथ भावनात्मक स्तर पर जुड़ने में कामयाब रहा.. इसी सर्ग में मस्ताना जी, धीरे धीरे शाक्य मुनि के समय में फैले पाखंडवाद की धज्जियां उड़ाते हुए, गौतम के बुद्ध बन जाने की यात्रा में आए, पड़ावों से हमें अवगत करवाते हुए चलते हैं…
क्रमबद्ध रूप में एक अच्छे कहानीकार की भूमिका, मनभावन छंदों में सजाते हुए, गाते गुनगुनाते हुए, सिद्धार्थ के जन्म, चिंतन और महाभिनिष्क्रमण की गाथा, रोचक रूप में सुनाती ये किताब, मुझे बांध लेती है.. अक्सर चुपचाप कविता पढ़ती हूं, पर तथागत मैंने उच्च स्वर में पढ़ी, अपनी आवाज़ को हृदय तल तक महसूस करते हुए…
कभी लगता था कि बुद्ध के बारे में इतनी कहानियां सुनीं हैं कि शायद अब कुछ नया नहीं पता चल पाएगा, पर यहां मेरी इस भ्रांति को दूर करने में कोई कोर कसर बाकी न रही..
बुद्ध का पांच मित्रों के साथ वन में तपस्या करना हो या गुरु आलार कलाम से तप विधि सीखना हो या भृगु ऋषि से मिलना या फिर राजा बिंबसार का पहले सिद्धार्थ को तपस्वी बनने के लिए हतोत्साहित करना हो और बाद में स्वयं उनकी शरण में जाकर बौद्ध हो जाना… ऐसी कितनी ही रोचक बातें और सिद्धार्थ से बुद्ध हो जाने के सफर में अाई मुश्किलों को इस पुस्तक में बहुत ही बारीकी से, कम से कम समय और शब्दों में उकेरा गया…
बुद्ध का “मार” से युद्ध या कहें सिद्धार्थ का स्वयं से टकराव और मन की दुर्बलताओं से मुक्ति, तथागत में बहुत रोचक तरीके से रखी गई… इस पुस्तक को पढ़ते हुए कई बार मन में आया कि, आध्यात्म की सीख एक ही है, इन्द्रियों पर नियंत्रण और दूसरों के प्रति विनम्रता और दया भाव… किसी भी धर्म का ये प्राथमिक आधार है, जिसे अफसोस, समय के साथ भुला दिया जाता है.. और कर्मकांड व प्रक्रियाएं प्रबल हो जाती हैं, सिद्धांत गौण.. ऐसे में पानी और दूध को अलग कर अमृतपान कर सकना, धीरे धीरे मुश्किल हुआ जाता है…
शायद ये सभी का सच है, पर अच्छा ये कि आज का मानव, अपने आत्मिक विकास को लेकर थोड़ा बहुत सजग हुआ है, और इतिहास व ग्रन्थों से खोजकर, अध्यात्म को धर्म की मीमांसा से परे, खुद से जोड़कर देखने का एक प्रयास कर रहा है..
प्रस्तुत पुस्तक में मुझे यही बात सराहनीय लगी.. यहां किसी एक धर्म की बात नहीं, वरन् व्यक्तित्व निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया गया.. राजकुमार सिद्धार्थ ने जिस यशोधरा को स्वयंवर में पाने के लिए युद्ध कौशल दिखाए, उसी रूपवती को वे रात के अंधेरे में छोड़ जंगल चले आए और फिर वर्षों बाद उससे मिलकर, क्षमा मांगी व खुद को और यशोदा को मोह मुक्त किया.. ये शायद बुद्ध के जीवन में ऐसा अध्याय है, जिसमें वे पूर्ण रूपेण मनुष्य नज़र आते हैं और मैं उन्हें खुद के करीब पाती हूं… भगवान के स्तर पर ले जाकर केवल पूजा करना, बुद्ध की सफलता नहीं वरन् व्यक्तिगत स्तर पर हृदय के समीप हो, उसे बदल देना, यह बुद्ध की विजय है और ध्येय भी..
अंत में कहना चाहूंगी कि ये पुस्तक “गागर में सागर” भरती है.. बिना किसी अतिरेक के, अपनी बात कुशलता से रखती हुई.. तथागत पढ़ना और उसे मन में उतारना, पाठकों के लिए एक सहज किन्तु जीवन में उत्कृष्ट परिवर्तन लाने वाला मुकाम साबित होगा..
Anupama
Recent Comments