तन की थकन मन को दोहरा कर रही है
दिमाग में ख्याल भरमाते हैं
पर कलम की नोंक से कहीं दूर भाग जाते हैं
मन हुंकार उठता है
नहीं करना मुझे इन कागज़ों को काला-नीला
नहीं भरना मुझे किसी कैनवस में रंग
नहीं भागना मुझे रंगीली तितलियों के पीछे
नहीं नापना मुझे पगडंडी से क्षितिज का रास्ता
थक चुकी इन गर्म सर्द हवाओं संग उड़ते
कभी खुद में कभी दूसरों में जीवन सत्व ढूंढते
इक अधूरी तलाश के सिरों को पिरोते बुनते
हारने लगी हूँ ज़िंदगी में ज़िंदादिली घोलते
बस अब सुकून चाहिए
स्याह आसमां में चमकते सितारे अब पकड़ने नहीं मुझे
उन तारों का हिस्सा बन जाना चाहती हूँ
खारे पानी में पांव डुबो गर्म रेत सी सिहर जाना चाहती हूँ
उस पहाड़ की चोटी पर खड़े हो मुझे बस कूद जाना है
अनंत आकाश में उस गुरु सा मुस्काना है!
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