सूरत में हुआ हादसा, फिर फिर, ध्यान दिलाता है कि हम अपनी ही जान को लेकर कितने लापरवाह हैं.. चौथी मंज़िल पर जाने के लिए लकड़ी की सीढ़ियां.. सबसे ऊपर एक्स्ट्रा टायर्स का रखा जाना.. और बाहर निकलने का कोई दूसरा सुरक्षित रास्ता न होना..
कितनी बार यही गलतियां दोहराई जायेंगी? बावजूद इसके कि नियम कानून हैं, उन्हें धड़ल्ले से ताक पर रख दिया जाता है.. दोषी शायद पकड़ लिए जाएं, कुछ वक़्त हो हल्ला भी हो, NOC के ऊपर ज़ोर भी दिया जाने लगे.. पर ये सब होगा सिर्फ कुछ वक़्त के लिए, फिर सब पटरी पर वापिस!
वैसे भी, हो चुकने के बाद, विचार विमर्श खोखला लगता है मुझे.. मोबाइल रिकॉर्डिंग करने वालों की संवेदन हीनता, दरअसल इस बात की पुष्टि करती है कि हमारे यहां जान कितनी सस्ती है.. बिल्डिंग में आग लगी हो, दम घुटने, जलने, मरने को अभिशप्त हों इंसान.. और दूसरी तरफ एक बड़ा जमावड़ा लगा हो, तमाशबीनों का, जो किसी भी तरह की मदद तो खैर नहीं ही कर सकता, बल्कि शायद जाम लगाकर, भीड़ जुटाकर रेस्क्यू वर्क को और जटिल ही बनाता है..
ये हादसे, एक नहीं कई ऐंगल्स से देखने, समझने की ज़रूरत है.. बेसिक सिविक सेंस और ईमानदारी की ज़रूरत ज़्यादा है.. सिर्फ नियम कानूनों से क्या होगा? पालन भी तो हो.. अनुपमा सरकार
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