“सूरज का सातवां घोड़ा” धर्मवीर भारती जी का चर्चित उपन्यास शायद हम में से बहुतों ने पढ़ा हो, पर कभी कभी शब्दों से परे, किसी इंसान के हाव भाव में कहानी को जीते हुए देखना, दिल को छू लेता है..
जी, मैं बात कर रही हूं श्याम बेनेगल निर्देशित फिल्म की, जिसमें माणिक मुल्ला की भूमिका निभाते रजत कपूर, से मैं हद दर्जे तक चिढ़ उठी थी.. कुछ समय पहले फिल्म आधी देखी, फिर दुबारा देखनी शुरू की, और अंत तक जमी रही…
शुरुआत रघुवीर यादव के चित्रकला प्रदर्शनी में पेंटिंग्स को घूरने से होती है.. देखने से ज़्यादा घूरना शब्द, उनकी भाव भंगिमा पर ज़्यादा मैच करता लगा मुझे, क्योंकि मैंने रघुबीर यादव के किरदार में उस इंसान को महसूस किया, जो हद से हद वीभत्स दृश्यों की कल्पना करने में सक्षम है और कहीं न कहीं उन्हें अपने अंदर जीता भी है…
मूवी का अंत, जिसमें माणिक मुल्ला को सत्ती, अपने अपाहिज चाचा और एक बच्चे के साथ भीख मांगती हुई दिखती है, और रजत कपूर सुबह उड़ती धूल में गायब हो जाते हैं.. मेरी इस सोच को पुख्ता कर गया कि शायद कहानियां किसी का सच और किसी की सोच का ही परिणाम हैं… और यहां श्याम के रूप में सूत्रधार का किरदार निभाते रघुबीर यादव, मुझे सच और सोच दोनों के बीच पुल बनते दिखे..
आप सोच रहे होंगें इतना ज़ोर सूत्रधार पर ही, असल हीरो तो माणिक मुल्ला है न…
न…. बेनेगल की मूवी में हीरो नहीं, इंसान दिखते हैं, वो भी मानव मन की कमज़ोरियों के साथ.. रजत कपूर एक ऐसे इंसान या कहूं पुरुष के किरदार में हैं, जिसके लिए नारी, नदिया पार करने को नाव भर है.. हां, वे बेहद संतुलित, शांत और क्रिएटिव हैं.. कुछ हद तक कोमल हृदय भी.. और शायद इसलिए जमुना, लिली और सत्ती के झट करीब हो जाने में उन्हें समय नहीं लगता…
पर ये केवल कहानी का एक छोर है, दूजे छोर पर खड़ी हैं वे तीनों बाहें पसारे और रजत, डरकर छुपते हुए.. दो स्त्रियां परिस्थितियों से मज़बूर हो उनके पास आती हैं तो लिली को विवाह वेदी पर बिठा, वे उसे ब्याहता होते हुए भी, अकेले जीवन यापन करने की ओर धकेल देते हैं…
खैर, ऊपरी तौर पर देखें तो यहां एक आदमी, हास परिहास में अपने दोस्तों को अपने ही प्रेम प्रसंग, कहानी के रूप में सुनाकर, थोड़ी सी वाहवाही लूटना चाहता है.. पर थोड़ा सा खरोंचते ही वह इंसान इतना आहत नज़र आता है कि दरअसल, हर कहानी में खोता केवल वो खुद ही है… बार बार वही खालीपन झेलता हुआ… और तिस पर उसके दोस्त, जो बिना किसी गुरेज़ के उसे स्वार्थी घोषित करने में पीछे नहीं हटते…
सच कहूं तो उन दोस्तों की सोच में मैं भी तब तक शामिल रही, जब तक मैंने इस फिल्म को परतों में देखना समझना शुरू नहीं किया… जीवन एक वृत्त है, किसी कार रेस ट्रैक सा गोल गोल… पर यहां कितने lap कितने कम समय में पूरे कर लिए, इस से कहीं ज़्यादा ज़रूरी, संतुलन बनाए रखना.. क्योंकि आपका वक़्त तो पूर्व निश्चित है… अपने आप घंटा बज ही जाना है…
पर, हां अपने अनुभवों से आप कितना खुद को बेहतर बना सकते हैं, वह आप पर निर्भर करता है.. वरना वही वही घटनाक्रम आपके साथ रिपीट होते रहेंगे, जब तक कि कोई फांस गले में यूं अटक न जाए कि सालों बाद भी गांठ चुभती रहे..
खैर, इस मूवी ने गहरा प्रभाव छोड़ा.. इतना कि इस के बाद उपन्यास पढ़ने की उत्सुकता अब तक चरमराई नहीं.. हालांकि माणिक मुल्ला का मैच्योर लुक जब वे लिली से प्यार करते हैं, और उनका बच्चे जैसा दिखना, जब जमुना उनसे फ्लर्ट करती है और सत्ती विशुद्ध प्रेम, में समन्वय नहीं बैठा पाई… शायद काल भ्रम हुआ यहां और इसके लिए उपन्यास पढ़ना कहीं बेहतर उपाय हो.. वरना इस फिल्म में फूड फॉर थॉट तो प्रचुर मात्रा में है, किसी भी शाब्दिक कृति को चुनौती देता हुआ।
Anupama
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