अश्विन मास तिथि पंचमी दिवस बुधवार,
नन्हीं सी जान सहेजकर लाए थे वो,
लाल चुनरी में लिपटी दो फुट की प्रतिमा,
मृगछौने सी कोमल आंखें, लहराते काले केश
दाएं हाथ में त्रिशूल, बांए पांव के नीचे अर्ध पुरूष।
अवाक थी मैं उस रूप को देखकर,
आक्रोश इतना मनमोहक भी होता है क्या
बचपन से ही चाव रहा दुर्गा पूजा का,
सजे पंडाल, तलवार-गदा-धनुष की टंकार
मीठी सी याद है मेरे जीवन की, स्मृति का अमिट अविस्मरणीय हिस्सा।
पर बड़ी हुई तो जाना, पढ़ा किताबों में,
पत्थरों में जान नहीं होती
फिर क्योंकर वो मूर्ति प्रतिष्ठित होते ही मुझे जीवंत लगी!
अंग-अंग से ओजस गरिमा फूट रही थी,
माँ गृहप्रवेश कर चुकी थी
अभिषेक-अर्चना-चरण-वंदना कर स्वयं को कृतार्थ पाया
पर जाने क्यों मुझे उनमें
नन्हीं गुड़िया का स्वरूप नज़र आया
एक प्यारी सी बहन जो है नहीं,
अंतरंग सहेली जो अब तक मिली नहीं।
चार दिन पूजा-पाठ का उपक्रम हुआ,
शंखनाद, मंगल-ध्वनि, घृत-धुनची से पंडाल महकने लगा।
रोज़ जाती मैं वहाँ, माँ का रूप देखने
कुछ परिवर्तन हुआ क्या, महसूस करने
पंचमी की नवजात शिशु, क्या षष्ठी की संधी पूजा
सप्तमी की अंजुलि पा, अपना स्वरूप बदल रही है?
वो बच्ची जो गर्भ से निकल,
पहली किलकारी से मन मोहे थी
क्या किशोरी बन आनंद के नवांकुर बो रही है?
क्या सचमुच अष्टमी-नवमी की दुर्गा
अधिक सशक्त नहीं लग रही?
क्या स्त्री रूप मुखर हो ममत्व ग्रहण कर रहा है?
क्या सिंदूर खेला की परिपक्व परिणीता
सिद्धहस्त गृहिणी सी नहीं दिख रही?
परिवार के प्रति पूर्ण समर्पित सबला,
पुरूष का दंभ समेट नव-विश्व रचती!
हां, लग रही थी वो प्रतिमा मुझ सी ही,
जिसे प्रेम से संजो विदा किया जाएगा
मंत्रजाप की ध्वनि में हौले-हौले,
भक्तिपूर्ण श्रद्धा से विसर्जित किया जाएगा।
तभी मैंने प्रथम पंक्ति में खड़े
पुरूषों को स्नेह मिश्रित अश्रुधारा में डूबे पाया
और समझ में आया,
भावनाओं का सजीव-निर्जीव स्वरूप नहीं होता
बस बंध जाते हैं हम उनमें,
लिंग-वर्ण-काया नहीं, अपितु प्रेम में रम जाते हैं
माँ बेटी बनकर आई, नेह का पाठ सिखा,
स्त्रीशक्ति का बिंब बन विदा हुई थी!
और अब मेरी भी आंखें भीग चली थीं!
Anupama
Published in Resonating Strings Anthology
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