कहानियाँ, फलसफे, अफसाने…बचपन से ही चाव से पढ़ती रही। कुछ गुदगुदातीं, कुछ सोचने पर मज़बूर कर जातीं कि आखिर कल्पना के कौन से अथाह सागर से निकलती हैं ये या सच में असलियत ही होती हैं, बस, भाषा का तड़का लगता है।
पर खुद कलम उठाई तो लगने लगा कि कहानी लिखने की वजह चाहे जो भी हो, पूरी होने के बाद वह कल्पना मात्र रह जाती है…लेखक की होते हुए भी उससे पूर्णतः अलग!
रचयिता उसमें अभिव्यक्त किए अपने सच्चे दुख को नकार सकता है.. झूठी खुशियों को उभार सकता है….नए चरित्र रच सकता है..असल पात्र बदल सकता है और फिर वो दर्द जो कभी उसके रक्त में विष घोल रहा था… केवल चंद पंक्तियों में सिमटी एक काल्पनिक त्रासदी भर रह जाता है….जिसे पाठक सराह सकते हैं…. आलोचक तीखी टिप्पणियों से घायल कर सकते हैं।
सच.. अभूतपूर्व ही है सृजन की महत्ता….रचयिता की ठोस असलियत और असीम कल्पना शक्ति का गडमड मिश्रण जिसमें सच्चाई कहां खत्म हुई और कल्पना की उड़ान कब शुरू…कोई नहीं जानता…शायद स्वयं उस कहानी का जन्मदाता भी नहीं!
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