ये मन भी न अजीब है। गर्मियों की इस ऊबाऊ दोपहर में भी शीतल हवाओं से लबालब। याद आ रहा है मुझे वो भीगा सा मंजर जब पहली बार सागर की लहरों को महसूस किया था। सूरज सर पर था। धूप भी तेज। शायद वक्त भी अमूमन यही। पुरी का विशाल समुद्र और उसमें उमड उमड कर एक के बाद एक आती सात लहरें। १२ साल की बच्ची के लिए सामने एक बिल्कुल नई दुनिया।
तपती रेत पर पांव जमाते उठाते ठठाकर सागर के बिलकुल करीब पहुँच जाना। नीले पानी को उछाल मारते अपनी तरफ आते देखना और घबराकर दो चार कदम पीछे ले जाना। लहर का टूटना और फेन भरे पानी का चारों ओर बिखर जाना। नीले रंग का जादुई रूप से सफेद झाग में बदल जाना और फिर धीमे धीमे रेत का लौटते पानी के साथ पांव तले से खिसकना। जमीन छिन रही हो ज्यों और अपने अस्तित्व को बनाए रखने की पुरजोर कोशिश में पांव और मजबूती से जमा देना। कितना स्वर्णिम अहसास, सपनों की दुनिया को बिल्कुल करीब से महसूसना।
रात में परवान चढते समंदर की ऊंची लहरों में जीवन का संगीत सुनना और टकटकी लगाए देखना उस शांत से चांद को जो इतनी दूर से भी सागर में हलचल मचाने में पूर्णतया समर्थ। आकर्षण नियमों में कब बंध पाया। उसी किनारे पहली बार रेत की कलाकृतियां भी देखी थीं। दो करिश्माई हाथ जिनकी छुअन भर से निर्जीव बालू साकार हो चली थी। अंगडाई लेती सुंदरी, ईश के सामने नतमस्तक प्रार्थी, भक्तिभाव से सराबोर शिवलिंग और प्रेम रस में पगी राधा कृष्ण की जोडी। अमिट छाप सी हैं ये तस्वीरें मेरे मन पर मानो सतरंगी कूची से सजा दी हो किसी ने हृदयतल की हर इक नली। मानस पटल पर उभरती वो सिप्पियां, धूप में चमकती,चांदनी में लिश्कारे मारती वो चिकनी बालू और उसमें लोटती खिलखिलाती, प्रकृति की अठखेलियों को महसूसती इस थकन भरी दुपहर में सालों पुरानी मेरी एक मीठी सी स्मृति !
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