Kuch Panne

सितारे

आज हवा में हल्की सी नमी है। बादलों की टुकड़ियां हौले-हौले गश्त लगा रही हैं। नन्हे तारे शर्मीले बच्चों से आसमां में दुबके जा रहे हैं। छदमी चांद बदलियों के बीच हंसता-मुस्काता अंगड़ाईयां ले रहा है। धूसर सा है समां, होली से पहले अक्सर आंधियां चला ही करती हैं। पर सरदी जाते-जाते गुलाब पर लाली ले आई है। सेमल की फुगनियों पर फूल खिलने लगे हैं। पीपल पीले पत्तों को झाड़ निर्विकार हो चला है। बूगनबेल भी तेजी से बढ़ चला है। मौसम बदला सा है और मैं धीमे-धीमे आंगन में चक्कर लगाती इस परिवर्तन को महसूस रही हूँ। अचानक मन में ख्याल आता है, ये तारे ज़मीं पर क्यों नहीं दिखते कभी। ये फूल उस चांद की मांग में क्यों नहीं सजते कभी। प्रकृति कठोर अनुशासक सी क्यों लगती है? क्या सौंदर्य में मिलावट उसे पसंद नहीं?

काश! बेर से उग आते ये तारे, सामने के बगीचे में। जितने चाहे तोड़ लाती, तश्तरी में रख घर सजाती, गुलदस्तों में भर कोना-कोना चमका लेती। अचानक याद आया, कभी एक डिबिया में भर कर रखे थे ढेरों सितारे, पुरानी साड़ी से जतन से उतार इक्ठ्ठा किए थे। सुना था सुच्चे थे, सोने की परत चढ़े। चकमक सी भर आती थी आंखों में, पल भर को मैं कोतूहल से भर जाती।

झटपट अंदर आई, अल्मारी से हड़बड़ी में डिब्बी ढूंढ कर निकाली और जल्दी से खोल डाली। पर ये क्या, हाथ आए तो बस कुछ पुराने जंग लगे टुकड़े,आढ़े टेढ़े मटमैले से बेतरतीब सितारे। कंपकपी सी छूटी और मेरे हाथ से डिबिया फिसल चली, ज़मीं पर सचमुच तारे बिखरे थे, धूमिल, धूसरित, विफल से!
Anupama

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