आसपास के शोर को अनदेखा करती.. धीमे-धीमे अवचेतन में उभरते विचारों की तहें उलटती पलटती हूँ.. डायरी के पन्नों में रखा सुर्ख गुलाब, अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को सूखी पंखुरियों में समेटे… मुझे कनखियों से देखता है… महसूसना सतही नहीं हो सकता… पोरों से छू… कोरों से छलकने वाले एहसास… परत दर परत समझने पड़ते हैं…
आसपास के शोर को ध्वनियों में बांटने का दुस्साहस करती हूँ…अनायास ही वे तरंगें तन मन में दौड़ने लगतीं हैं… चिर परिचित आवाज़ें, अपनी मजबूरियां गिनातीं, जिंदगी के छोटे मोटे सुख दुख का वर्णन कर, मेरी आँखों में आत्मीयता ढूंढतीं… हामी भरती हूँ… हुंकारा भी… हाँ, तुम सब में शामिल है मेरी उपस्थिति… सशरीर हूँ.. अनुभूतियों की अभिव्यक्ति स्वीकार करने को उद्यत…
आवाज़ें शांत होने लगतीं हैं.. अपने संवेदनाएं उड़ेल, खाली हो रही पक्ष प्रतिपक्ष की टोलियां… अकस्मात मेरी आँखों में झांक मन समझने का प्रयास करने लगतीं हैं… सीप अपने मोती को और भीतर धकेल देता है… लहरें किनारों से टकरा कर लौट जातीं हैं…. पल भर को आया ज्वार उतनी ही तेज़ी से वापिस हो लेता है… उन आवाज़ों के पास बहुत कुछ है कहने को… सुनने को कान चाहिए, ज़ुबां नहीं…
शोर फिर बढ़ने लगा है… अपनी अपनी टुकड़ियों में बंटा… संसार का चमकीला दुशाला अपने भीतर ब्रह्माण्ड समेटे… सुबह के कुहरे सा सब छुपा लेता है… अधरों पर मुस्कान चिपका ली है… मन की गहराइयों को उस डायरी के पन्नों में सुरक्षित रख… आवाज़ों में सम्मिलित हो चली हूँ… सायास स्वयं को खो देने का प्रयास.. गूँज अनुगूंज…. पहाड़ी झरने का स्तोत्र… कहाँ क्यों कब.. समझना सरल नहीं…
Anupama
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