ज़िन्दगी में अक्सर हम बिल्कुल वैसे ही बन जाते हैं, जैसे हम नहीं होना चाहते। जिन बातों से हमें चिढ़ होती है, जाने अनजाने उन्हीं में उलझते हैं। जैसे लोग हमें नहीं भाते, वही हमसे बार बार टकराते हैं। और याद कीजिएगा वो चेहरा, वो व्यक्तित्व, वो अवगुण, जिनसे आप बेहद चिढ़ते हैं, बहुधा परिस्थिति बदलते बदलते, हम भी बिल्कुल वैसे ही बन जाते हैं।
अजब सी बातें हैं न! पर सच है एकदम, हमारा मन स्पॉन्ज है, जिन चीज़ों, बातों, लोगों से चिढ़ेंगें, वही सबसे ज़्यादा absorb कर बैठेंगें… ज़िंदगी इसी टेढ़े मेढ़े रास्ते पर तो भागती है। कहिए इसे वाइब्स, एनर्जी, डेस्टिनी या कुछ और… पर होता रहा है, होता रहेगा। सबके साथ होता है, बस प्रपोर्शन डिफरेंट होते हैं, शायद जितनी ज़्यादा नेगेटिव अप्रोच, उतना ही ज़्यादा उन बातों का हम में घुलते जाना। अक्सर इसका अहसास बहुत बाद में हुआ करता है, और तब हाथ मलने के सिवा और कुछ बाक़ी नहीं रहता।
पर कभी कभी किस्मत दूसरा चांस दिया करती है, जैसे मिला शकुंतला देवी और उनकी बेटी, अनुपमा बनर्जी को। एक जीनियस जिसे अपने पिता से नफरत थी और मां से हद से ज़्यादा चिढ़। एक मैथ्स की दीवानी, जो नंबर्स की दुनिया में नंबर वन होते हुए भी, ज़िंदगी की इक्वेशन में हमेशा unbalanced रही। एक इंसान, जो खुद को “बड़ी औरत” बनाने की धुन में, सिर्फ बड़ी शब्द ढूंढती रही और समाज की “औरत” की परिभाषा में बार बार उलझ कर गिरती संभलती रही।
काश शकुंतला सिर्फ़ इंसान समझती ख़ुद को, अपनी असफलता पर तिलमिलाती नहीं, हार पर झल्लाती नहीं… अपनों को वो प्यार, वो स्नेह वापिस दे पाती, जो उस पर बिना जताए दिया जाता रहा… पर तब क्या शकुंतला देवी सचमुच वो बन पाती, जिसके लिए उनका जन्म हुआ था? क्या एक जीनियस, एक असाधारण व्यक्तित्व, कभी भी बेड़ियों में जकड़े हुए, खुद के साथ न्याय कर सकता है?
नहीं, कभी नहीं! असाधारण शब्द के साथ तो भाषाविद भी खेल कर गए हैं। “असामान्य” की तर्ज पर यह शब्द विलोम ही महसूस होता है, विलक्षण नहीं! सामान्य लोगों के बीच रहकर असाधारण होना आसान नहीं। परिस्थितियां उलट ही लगती हैं, जीवन हिचकोले खा खा कर ही चला करता है।
पर फिर भी, शकुन्तला ही नहीं, हम में से हर इंसान के साथ जो होता है, जो गुज़रता है, जो झेला जाता है, दरअसल वही हमें “हम” बना पाता है… अनुभव मन की नींव हुआ करता है, ख़ासकर जब वो मन, औरों से हटकर अपनी पहचान समझता हो, ख़ुद के लिए जीना चाहता हो। इस जीवन को सिर्फ़ लीक पर चलकर नहीं, आसमान में उड़ते हुए बिताना चाहता हो… ये सब तभी सम्भव, जब आप दहकती नज़रों और चुभते तानों को इग्नोर करना सीख पाएं… और यही सब दिखाया और क्या खूब दिखाया, शकुंतला देवी में अनु मेनन ने… एक ऐसी मूवी, जो न देखी जाए तो बहुत कुछ मिस हो जाएगा, शायद उतनी ही ज़रूरी जितनी दिशा निर्देश के लिए अचानक दिखा कोई बोर्ड, जिसके बिना आप रास्ता भटक जाते हैं।
सच्ची कहूं, मैंने शकुंतला देवी के बारे में नहीं सुना पढ़ा था कभी, मेरे लिए विद्या बालन ही मुख्य आकर्षण थीं। और मूवी खत्म होते होते, पूरे ज़ोर से कह सकती हूं कि सिर्फ़ और सिर्फ़ विद्या ही यह रोल इतनी शिद्दत से निभा सकती थीं। उनका व्यक्तित्व मुझे असल ज़िंदगी में भी एक स्ट्रॉन्ग, पावरफुल ह्यूमन बीइंग का लगता है। वह सिर्फ हीरोइन नहीं, अपनी शर्तों पर जीती इंसान नज़र आती हैं, जो अपनी देह, अपने मन, अपने करियर के साथ पूरी जस्टिस करती हैं, उसे मन से स्वीकार करती हैं। इस मूवी में विद्या और शकुंतला अलग नहीं, एक ही नज़र अाई, एक्टिंग स्किल्स के साथ साथ यह जादू वैल राउंडेड पर्सनैलिटी का कहीं ज़्यादा है… और यह मूवी एक ऐसी प्रेरणा, जिसे बिना जजमेंटल हुए देखेंगे तो एक अच्छा सबक भी कहीं धीरे से मन में घर कर जाएगा। मुझे बेहद पसंद आयी शकुंतला देवी, बोल्ड, लाउड एंड टोटली डिफरेंट… अनुपमा सरकार
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