Review

संझा बाती, पारुल तोमर

कविताएं सुर लहरी सरीखी होती हैं… एक बार मन रम जाए तो रुकने को जी ही न चाहे… तिस पर शब्द संयोजन और विषय विन्यास अनूठे हों तो समय का ध्यान रहे भी कैसे!

जी, मैं बात कर रही हूं, डॉ पारुल तोमर के पहले कविता संग्रह संझा बाती की… पिछले कुछ घंटे इसी पुस्तक के सान्निध्य में व्यतीत हुए… ओझल बोझल, कजरे गजरे, चटकन मटकन, निखरे बिखरे शब्दों के सागर में हौले हौले डूबती उबरती मैं, भावों की चित्रकारी से विस्मित हूं…

प्रकृति की सुंदरता का खाका खींचने में कुशल कवयित्री, कब धीरे से छंदमुक्त कविताओं को, सुघड़ता से सुर ताल में बांध देती हैं… कैसे खेतों से मटर तोड़कर खाने वाली बच्ची, नववधू बनकर उन्हीं पगडंडियों पर लजाती है.. शहर के धूल धक्कड़ को पटक, जाने कैसे मिथकों के पन्ने पलट, ये कविताएं, बिन रुके, आपको इस युग से उस युग तक जोड़ देती हैं… ये बिना किताब पढ़े समझना और विश्वास करना आसान नहीं…

संझा बाती में यूं तो 80 कविताएं हैं, पर इनका फलक इतना विस्तृत कि आप हैरान हो उठते हैं.. रात के इठलाते चांद से कॉफी हाउस की मायूसी तक, होली के ढोल से प्रेम के मंजीरे तक आप झूमते चलते हैं और पारुल अपनी कविताओं में कहीं हौले से मुस्काती हैं…

और इस से पहले कि आप सांस लेने को थमें, एक नई कविता, अलग पृष्ठभूमि के साथ आरंभ हो जाती है… सहज अनुभूति और सशक्त अभिव्यक्ति, इस कविता संग्रह की विशेषता है… वहीं जीवन और धरती से जुड़े होना, इसकी सफलता…

जितना सुंदर आवरण पृष्ठ, उतना ही पारंपरिक शीर्षक… आजकल की “मिक्सड कल्चर” में संझा बाती, भाषा में विलुप्त होती शुद्धता को चुनौती देती प्रतीत होती है… हिंदी के इस रूप को जीवंत रखने की आवश्यकता है और अगर आप विशुद्ध हिंदी के पक्षधर हैं, तो ये पुस्तक आपको अवश्य लुभायेगी…

दो कविताएं जो मुझे बेहद पसंद आयीं, आपके साथ साझा कर रही हूं… शब्दों की जादूगरी का आंनद लीजिए.. अनुपमा सरकार

 

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