सागर किनारे पाँव पाँव चलने का मन है आज… चांदनी रात में नहीँ बल्कि सिखर दुपहरे…. जब हर कोना सूरज की गर्मी से तप रहा हो… दूर दूर तक केवल सुनहली धूप हो…आँखों में चमचमाती किरणें….चेहरे पे पसीने की बूँदें…और मन में नव दिवस की उमंगें… भरपूर जीना है ये पल…रात्रि की कालिमा नहीं दिवस की लालिमा में आँखों में आँखों डाल…जीवन का ज्वार भाटा महसूसना है…दौड़ना है उन लहरों संग जो बार बार तट की ओर आकर्षित हो यूँ चली आती हैं जैसे आलिंगनबद्ध हो जाना हो सुप्त बालू से…और फिर शरमाकर लौट जाती हैं उसी गहरे सागर में जिसकी तरंगें जीवित रखे हैं उन्हें…अजीब बेचैनी है उन लहरों में…ठहराव कचोटता है और बहाव संकुचित कर देता है….सीपियों की फौज लिए आती हैं तट पर उडेलने…और फेन फेन हो लौट जाती हैं…रेत के कणों को हौले से दबा उनपे अपनी छाप छोड़ना चाहती हैं…. पर नाकाम हो जल में विलीन हो जाती हैं…इन लहरों को पकडना चाहती हूँ आज ..हाथों में हाथ लिए सागर किनारे बैठ जाना चाहती हूँ इनके साथ…वक्त की सुईयों को रोक सूरज की अठखेलियों से आनंदित बूंदों को बादलों में बदलते देखना चाहती हूँ… भाव विभोर मेघों को फिर से लालायित हो समंदर में बरसते देखना चाहती हूँ….क्षितिज पर नजरें टिका सूरज और सागर का अभूतपूर्व मिलन बसा लेना चाहती हूँ आंखों में और चुपचाप तपती रेत के छालों को बहा देना चाहती हूँ खारे सागर में… कुछ घाव नमक ही भर पाता है न…..
Anupama
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