सड़क पर अपनी धुन में खोए, पत्तियां तोड़ते हुए चलने वाले, अजब दुनिया के लगते मुझे.. कई बार गुस्से में देखती उन्हें, अपनी बस में कोने की सीट पर बैठे…
उस स्टॉप पर बस देर तक रुकती थी, उन दिनों प्राइवेट जो हुआ करतीं थीं… ठसाठस भरे बिना, जगह से न हिलने की बेचारगी सी झलकती ड्राइवर कंडक्टर के चेहरों से..
खैर, मुझे ये इंतजार कभी खला नहीं.. अमूमन हाथ में किताब होती और समय फुर्र फुर्र उड़ता हुआ.. अलबत्ता कभी बाकी सवारियों को झल्लाते सुन, हंसी आती मन में… सोचती कहां पहुंचना है इन्हें.. क्या जल्दी है, जीवन के एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक छलांग लगाने की..
हां, कभी ज़्यादा देर तक एक ही जगह टिके रहना ऊबा देता मुझे.. किताब से मन उचटने लगता… पलकें ढुलका बैठ जाने का दिल करता.. पर जब आसपास सब खाली बैठे हों, तो आपका अपनी दुनिया में आंखें मूंद खो जाना, सम्भव नहीं लगता…
सो, मैं दूर तक देखने का प्रयास करती.. वहां तक जहां बादल, ज़मीं छूते नज़र आते और बुग्नबेल, पीपल के पेड़ से लिपटी हुई… कुछ तो खास था उस लाल दीवार में… किसी कम्पनी की बाउंड्री वॉल थी, पर मेरे लिए सजीव चित्रकारी… अक्सर फूल दिखते उस पार से.. शायद मेरी ही तरह, वो भी खिड़की से बाहर की दुनिया में झांकने का प्रयास करते हों.. वैसे भी प्रकृति सांकलों में कब बंधी… मैं देर तक उलझी रहती उन बेतरतीब उगे, हवा हिंडोले पर सवार पेड़ों बेलों पत्तों में… मौन रहकर भी कितना बतियाती मुझसे, उनकी मचलती फिसलती रागिनियां… देर तक निहार सकती थी उन्हें..
पर मेरी तंद्रा तोड़ जाते बेसब्र राहगीर.. चलते चलते, बेवजह रास्तों पर थूकते.. वही राह, जहां मुझे दूर से हरसिंगार झरता दिखता था और मैं कल्पना करती थी, उसके नीचे खड़े हो, मुठ्ठी भर भर, सुरभित सरस हो जाने की… वे बेखबर से नोच देते, इठलाती, कोमल लताएं, जो दीवार से ज़रा बाहर, बढ़ने की चेष्टा करतीं.. वे कुचल देते लाल सफेद पंखुड़ियां, जो पीले पड़ते पत्तों संग, कुर्बान हो चली थीं..
और मैं चुपचाप देखा करती, इंसान की आवारगी को, प्रकृति के शांत स्वरूप को कसमसाते.. वहीं उन्हीं बस स्टॉपस पर, जहां बसें, कभी सवारियां भरने की दुकान हुआ करतीं थीं…
Anupama
#fursatkepal
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