आज आंगन में चहलकदमी करते नज़र अचानक सदाबहार के पौधे पर चली गई। पांच फुट ऊंचा पेड़ बन चुका है, मेरे घर का ये नन्हा मेहमान। शायद खाद ज़्यादा मिल गई या धूप-पानी ने कुछ खास खातिरदारी कर डाली। खैर, मेरे घर के पौधों की खासियत ही है, पनपते नहीं फैल जाते हैं। उन बड़े-बड़े गमलों को अपना समझकर, खुश हो लहलहाते हैं। पर, आज इन पौधों की लंबाई नहीं, बल्कि इनके होने न होने की गहराई पर ही ध्यान था मेरा।
जानते हैं, हर सदाबहार का फूल खिला सा लग रहा था। गाढे गुलाबी रंग से परिधियों की तरफ हल्का होता पांच पत्तियों का शहज़ादा| अचानक मुझे जाने क्यूँ अपनी ड्राइंग टीचर याद आ गई | छोटी सी थी जब उन्होंने कहा था ‘चार पत्तियों का फूल नहीं होता’ | बालमन बग़ावत कर उठा था, अरे वाह क्यूँ नहीं हो सकता ! कभी तो ढून्ढ ही निकलूंगी ये अजूबा | बनाना भी तो कितना आसान था, सीधी सादी चार लाइनें खींची और आढी टेढ़ी जोड़ डाली | पूरी तरह संतुलित चित्र तैयार, खाका भी आसान, परिणाम भी उम्दा |
पर, बहुत सारी बातों की तरह मेरा ये संतुलित भ्रम भी ज्यादा दिन नहीं टिका | शायद, संतुलन या समरूपता नाम की कोई चीज़ ढूँढना या बचाए रखना आसान भी नहीं | भटकाव बहुत है ज़िन्दगी में, लकीर की सीध में चलना असंभव ही नहीं, बेकार भी | टेढ़ी मेढ़ी डगर अपनानी ही पड़ती है | दिल रो रहा हो तो भी चेहरे पर मुस्कान सजानी पड़ती है |
प्रकृति भी यही दर्शाती है | बहुत तलाशा मैंने, पर हर पत्ता बराबर नहीं दिखा, न अशोक का, न पीपल का | तुलसी के बीजों में भी रही विविधता | गुलाब के कांटे तक नहीं उगते एक दूजे के सामानांतर, फिर खिलते गुलाब की पंखुरियों का तो कहना ही क्या |
आज सदाबहार की उन पांच पत्तियों से स्मरण हो आया की हर बात “सम” पर नहीं रूकती, “विषम” से भी गुज़रना पड़ता है मन को | समन्वयता ज़रूरी है, समानता नहीं |
हाँ, पर चार पत्तियों का फूल होता है, देखा है हमने गूगल पर | आखिर, अपवाद तो हैं ही दुनिया में, हम सरीखे कुछ !
Anupama Sarkar
Published as Meri Diary (Mantavya 2)
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