आजकल रोटियां गोल नहीं बनती मुझसे… किनारे टेढ़े मेढ़े हो जाते हैं… कहीं मोटी कहीं पतली… जाने क्यों कुछ हिस्से अधपके रह जाते हैं…. सब्ज़ी में नमक कम, मिर्ची ज़्यादा डाल देती हूँ… दूध उबल-उबल गाढ़ा हुए जाता है… दाल मैं कच्ची ही उतार लेती हूँ… कढ़ाही में कड़छी चलाते खो जाती हूँ कहीं… कुकर की सीटी से डर जाती हूँ… अपना नाम सुनाई नहीं देता पर सामने की बेरंग दीवार पर चमकते चांदी के कणों में लहरों का शोर हिलोरे मारता नज़र आता है… बिन आवाज़ बातें करती हूँ खुद से…जाने किस दुनिया में खो जाती हूँ… बुनती हूँ ख़्वाब महीन रेशम से… फूलों से नाज़ुक… काँटों से परे… हौले से उनमें रंगीन तितलियाँ उकेर देती हूँ… फिर घूमाती हूँ गर्दन… आसमां को ज़मीं और ज़मीं को आसमां समझ… इस गोल दुनिया को चौकोर देखने का एक प्रयास करती हूँ … यूँ भी कभी खुद से बात करती हूँ….
Anupama
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