जहां भी रहूँ इक नज़र दरीचे से उलझी रहती है
उसके आने की आहट अक्सर सुनाई देती है
उचककर दहलीज़ तक जाती हूँ और
हवा के मासूम मज़ाक से तड़प जाती हूँ
सूरज के सीढ़ियां उतरते उतरते
उम्मीद भी उनींदी होने लगती है
चाँद को तकिया बना तारों से बतियाने लगती हूँ
वक़्त जो गुज़रा अकेले, उसका हिसाब लगाने लगती हूँ
तभी वो मस्त झौंके सा दरवाज़ा धकेल चला आता है
और भोला सा चेहरा बनाकर पूछता है
कब से याद कर रहा था, सुनती क्यों नहीं ?
मेरे होंठों पर गाली और आँखों में मुस्कान
एक साथ उभर आती है, बेचैनी बेवजह न थी !!
Anupama
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