कहते हैं आईना कभी झूठ नहीं बोलता
खोल देता है राज़ सारे
छुपा के रखे हों जो ज़ख़्म करारे।
हम भी बैठ गए इस बात को आजमाने
खुद को अपने ही प्रतिबिम्ब से मिलाने।
कुछ पल दर्पण में ध्यान से देखा
बाल बनाए संवारी चेहरे की रूपरेखा।
और फिर झांकना शुरू किया अपनी ही आंखों में
दिल को रास्ता दिखाने वाले उन गहरे सांचों में।
पहले तो लगीं खूबसूरत आत्मविश्वास से भरी
फिर लगने लगीं विस्मित, कुछ ढकी छुपी।
धीरे धीरे डूबने लगे हम उन आंखों में
मन की संवेदनाओं में, अनदेखी रचनाओं में।
उधड़ने लगीं परतें, खुलने लगी वो तहें
संभाले रखा था जो दिल ए ख्याल
सामने आ गया बनके सवाल।
कितना कुछ था उनमें अनकहा
दुनिया के डर से, लोक लाज के भय से लुकाछुपा।
दिखने लगी कई परछाइयाँ इक दूजे से लिपटी
संरक्षण की चाह में खुद से ही जूझती।
थी वहाँ एक मासूम बच्ची
हर चीज़ को उत्सुकता से टटोलती
खड़ी वहाँ एक गर्वित युवती
हर बात को मापदंड पर तौलती
छटपटा रही थी एक कवियित्री
हर वाक्य में लय तलाशती
और दूर कहीं धुंधलाई सी दिखी
एक प्रौढ़ा भी अपनी लाठी से
भूत भविष्य को जोड़ती।
सोचने लगी कौन हूँ मैं?
क्या है अस्तित्व मेरा?
मैं इनमें गुम हूँ या ये हैं मुझमें गुमशुदा?
सच है आईना कभी झूठ नहीं बोलता
खोल देता है राज़ सारे
छुपा के रखे हों जो ज़ख़्म करारे।
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