कल किंडल पर यूं ही टकरा गई थी “रावी पार” से.. गुलज़ार की किताब है, नज़्में होंगी, ये सोच, बिना पन्ने पलटे ही झट डाउनलोड कर ली..
पर जैसे ही पढ़ने बैठी, समझ में आया कि अरे, ये तो कहानियां हैं, गुलज़ार की कहानियां… पहले पढ़ी नहीं कभी.. फिर मन कुलबुलाया कि जब स्क्रिप्ट लिख सकते हैं तो कहानियां ही मुश्किल कहां.. आखिर उनके किस्सागो होने की गवाही तो उनकी नज़्में भी देती हैं, सो हम भी जमकर बैठ गए, उनके संग फंतासी के शहर में तफरी करने को….
और हुआ वही जो सोचा था.. पहली कहानी “ख़ौफ़” से जो समां बन्धा तो सिलसिला टूटा ही तब, जब फोन की बैटरी खत्म होने को हुई.. और उस दौरान भी, मैं गुलज़ार की फिल्म “मौसम” संग डोलती रही.. पर अभी मूवी की बात नहीं करूंगी, कहूंगी तो सिर्फ “रावी पार” की..
कुल मिलाकर 27 छोटी छोटी कहानियां हैं इस किताब में.. बंटवारे की आंच से लेकर मुंबई के दंगों की दहशत तक… 1947 के सम्पूर्ण से लेकर बिमल दा के गुलज़ार तक… और सनसेट बुलवर्ड की अधेड़ अभिनेत्री चारूलता से लेकर, दिलीप कुमार के पीछे पागल अल्हड़ गुड्डो तक… हर किरदार जुदा, हर फलसफा महीन बुना हुआ.. विविधता की कोई कमी नहीं इस किताब में…
कुछ मायनों में, इन कहानियों को उनकी शायरी का एक्सटेंशन मान लें, तो अतिश्योक्ति न होगी.. अंदाज़ ए बयां भी ठीक वही…वही भाषा… वही शैली.. हिंदी-उर्दू के लज़ीज़ सालन में हलका सा तड़का पंजाबियत का… और वही त्रिवेणी सरीखे, शुरुआती फलसफे को खतम होते होते, पटखनी दे देना…
रावी पार समेत सारी कहानियां, खुद में सस्पेंस छुपाए चलती हैं… आप समझते हैं कि आपको अंत समझ आ गया, और तभी गुलज़ार अपने चिर परिचित अंदाज़ में धोबी पटका देकर मुस्कुरा देते हैं…
वैसे तो बहुत से किस्से पसंद आए पर “धुआं”, “डलिया”, “फसल” और “मर्द”, इन चार कहानियों की कैफियत कुछ जुदा थी… गांव देहात से जुड़ी और औरत के जिस्म और दिल को छलनी करतीं.. हालांकि कुछ कहानियां मुझे मौलिक नहीं लगीं, लगा जैसे कहीं पहले पढ़ सुन रखी हों, खासकर “माईकल एंजलो”, “अद्धा” और “लेकिन”…
पर कुछ भी हो, पढ़ने में जितना मज़ा अब आया, पहले कभी नहीं आया था.. बहुत ही किफायती लिखते हैं गुलज़ार, कम लफ़्ज़ों में सीधा दिल तक छेदते हुए.. और इतना जीवंत कि कभी तो ऐसा लगा, मानो मैं और वो एक ही कमरे में बैठे हैं, अलाव में धीमी सी आंच है और उनकी आवाज़, खिड़कियों दीवारों से टकरा कर गूंज रही है.. यकायक गुलज़ार किस्सा कहना रोक कर, कहते हैं “एक चाय तो बना लाओ यार, बड़ी तलब लगी है”.. और मैं मुस्कुरा कर कॉफी की चुस्कियां लेने लगती हूं..
“रावी पार” उम्दा शॉर्ट स्टोरी कलेक्शन लगा… इन किस्सों में बहुत कुछ है, जो मन को बांधता है और कुछ है जो आज़ाद कर देता है.. गुलज़ार के ही लफ़्ज़ों में कहूं तो “कभी नज़्म कह के ख़ून थूक लिया और कभी अफ़साना लिख कर ज़ख़्म पर पट्टी बाँध ली”… और अब हम तो उनकी नज़्मों संग, अफसानों के भी मुरीद हुए…
खैर, गुलज़ार तो लिखकर परे हुए, पर मैं देर तक उनके किरदारों में उलझी रही… वो “अफसानानिगार” जो कमाल के हैं … ये लफ्ज़ भी उन्होंने ही सिखाया आज, और अब इसका ज़ायका ज़ुबां से दिनों तक छूटने वाला नहीं… वक़्त हो तो आप भी पढ़ने का लुत्फ़ लीजिएगा…. नाउम्मीद न होंगें…
Anupama Sarkar
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