धू-धू करके रावण के पुतले जलने लगे
बुद्धिमान इस पर भी सवाल खड़े करने लगे
कहते हैं पुतलों से क्या होगा भीतर का रावण मारो
कुंभकर्ण तो भाई सगा था विभीषण को गोली मारो
सीता ही नहीं थी पतिव्रता मंदोदरी का गुनगान करो
राम ने ऐसा क्या किया आज जो उसका नाम जपो
कभी प्रभावित होती थी मैं इन भारी-भरकम बातों से
खुद की वाहवाही करती उनके शेरों की पांती सेे
पर जाने क्यों अब ये आवरण छिजता सा लगता है
जैसे रामलीला का राम दबंग रावण से दबता है
नकारना बुद्धिमत्ता का पर्याय ही बन चला
मौलिक नहीं सोचना बस परंपराओं को नोचना
विभीषण को कोसना
खुद दोस्त के सीने में खंजर घोंपना
शायरी की आढ़ में चिलमनों से झांकना
दिखावा कर स्वच्छता का दूसरों को कमतर आंकना
निष्पक्ष हो सोचो तो पाओगे केवल प्रतीक हैं
रावण का पुतला गांधी का चरखा
सुभाष का खून मांगना
बस इक पुकार है इंसानियत को जगाने की
लुके छिपे आदर्शों को दिया दिखाने की
केवल संदेश था रावण को जलाना
सीता को छुड़ाना ये दिखाना
मर्यादा का उल्लंघन बख्शा नहीं जाएगा
राजा हो या रंक दोषी सज़ा पाएगा
इंसाफ के तराज़ू में तोला जाएगा
शायद बह गई ये भावनाएँ फूहड़ता की आंधी में
तोड़ने लगे हर बंधन आधुनिकता की आंधी में
शिकायत नहीं इल्ज़ाम नहीं दुहाई है ये
मत होने दो इस देश को बूढ़ा संस्कारों को बचा लो
खत्म करने से पहले बस इक बार दिल पर हाथ रख
उस बचपन की मासूमियत से मशवरा लो
कौन जाने राम राज्य कल्पना नहीं सच्चाई बन जाए! Anupama Sarkar
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