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रंग

आज ऑफिस से पैदल ही घर आयी… बहुत सालों में शायद पहली बार छोटी होली पर भी अकेले निकलने और पैदल चलने की हिम्मत जुटाई थी… हालांकि आधे रास्ते आते आते, अपना फैसला गलत लगने लगा… एक कॉलेज आता है रास्ते में और पार्क भी… दोनों ही जगह लड़कों के ग्रुप्स लाल, नीले, गुलाबी, बैंगनी रंगे हुए…

एक पल को ये भीड़ देखकर मन घबराया पर दूसरे ही पल उनकी मासूम हंसी मन मोह गई… सब के सब आपस में गलबहियां करते, मस्ती मारते दिख रहे थे… खूब उत्साह, उमंग, ख़ुशी से सराबोर… एक ग्रुप तो बाकायदा रंग बिरंगी पेपर कैप्स लेकर आया था… उनमें से कोई भी मुझे आसपास चलते लोगों, लड़कियों, बच्चों को परेशान करता नहीं दिखा… उनका सारा हुड़दंग अपने दोस्तों तक ही सीमित था, स्वैच्छिक था…

रंगे पुते चेहरों पर टोपियां पहनकर, खिलखिलाते हुए सेल्फीज़ लेते ये स्कूल कॉलेज के लड़के, होली का एक ऐसा चेहरा हैं, जो हम सब होना चाहेगें… हंसते मुस्कुराते जीवंत… जिन्हें छोटी छोटी बातों में खुलकर जीना आता है और बड़े बड़े सपनों को साकार करने के लिए डटकर पढ़ना और मेहनत करना भी…

जानते हैं, रंग बेहद प्यारे हैं… अबीर गुलाल लगाना या एक दूजे पर पिचकारी से पानी की बौछार कर देना, कहीं से भी ग़लत नहीं… पर सिर्फ़ तब तक जब तक, आप जिनके साथ खेल रहे हैं, वे भी आपके इस खेल में ख़ुशी ख़ुशी शामिल होना चाहते हों… ज़बरदस्ती किसी के मुंह पर परमानेंट या केमिकल क्लर पोत देना या कीचड़ गंदगी का इस्तेमाल करना… आते जाते हुओं पर गुब्बारे मारना, बाल्टी भर भर पानी उड़ेल देना, केवल फूहड़ता है… प्यार हो या त्योहार, मस्ती हो या ख़ुशी, दूसरे की हां या ना बहुत मायने रखती है, ये बात हमें बतौर समाज अब सीखनी और सिखानी होगी…

जो उल्लास मैंने उन बच्चों में महसूस किया, सकारात्मक था… लगा दिल्ली में तहज़ीब है, मन प्रसन्न था…

हालांकि कुछ ही दूरी पर ये भ्रम टूट गया… पास ही की कॉलोनी में छत पर छुप कर बैठे दादा दादी के साथ लाडले पोते पोती का हर आने जाने वालों पर गुब्बारे मारने का नज़ारा अब मेरे सामने था… मेरे देखते देखते दो बार गुब्बारे फेंके गए, निशाना दोनों बार चूका… गुजरने वाले ने आंखें तरेर कर उन दोनों बच्चों को देखा… अंदर की ओर भागते बच्चे, दादी से और भरे गुब्बारे लेकर फिर निशाना साधने की प्रैक्टिस में जुट गए…

बच्चे तो शायद नहीं समझते कि यूं ऊंचाई से पानी भरे गुब्बारे किसी पर मारना चोट का सबब बन सकता है… पर उनके साथ बैठे बड़े तो इनसे परिचित हैं… बच्चों से कहीं ज़्यादा, साथ बैठे दादा दादी का मौन समर्थन, मन में मरोड़ दे गया… इन मासूम बच्चों के खेल में साथ देते बुज़ुर्ग, ज़रा सी संवेदनशीलता भी सीखा देते, तो शायद कहीं बेहतर होता… अपनी सीमाओं और दूसरों की इच्छाओं का सम्मान करने का गुण आखिर परिवार से ही तो आएगा न… वरना करते रहिए कितने ही गुब्बारे पटाखे बैन… कहीं न कहीं कोई न कोई यूं ही औरों को बिना मर्ज़ी खेल का शिकार बनाएगा और होली जैसे प्यारे त्योहार को बदमाशी और बदतमीज़ी का लाइसेंस देता नज़र आएगा… अनुपमा सरकार
#रंग

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