रेनकोट, रितुपर्णो घोष की वो कहानी, जहां एहसासों के बीच झीना सा पर्दा है… न न.. शायद पर्दा नहीं अंतराल.. बस कुछ पलों की देरी… कहने और सुनने में… और बातों का एक दूजे तक पहुंचने से पहले ही ज़िन्दगी की राहें बदल जाना..
दो ऐसे लोग, जो दर्द भी समझते और दवा भी बनते… अपने बीचोंबीच शर्म, ग्लानि, आत्माभिमान की दीवार खड़ी किए बैठे हैं… उचक कर दूसरी ओर देखने का प्रयास करते हैं… विफल हो, मन में कहानी बुन लेते हैं… जहां दूसरा किरदार खुश है, और वे फीकी सी हंसी के साथ, उसकी खुशी में शामिल…
पर सालों बाद, दरारों से इक दूजे की दुनिया में झांकते हैं… खुद को कामयाब और मुकम्मल दिखाने का नाटकीय अभिनय करते हुए… ठीक वैसी ज़िन्दगी, जो उन्होंने सोची तो थी, पर जी नहीं रहे….
पर, ज़िन्दगी तो ठहरी मनचली… हवा का एक झोंका, दरारों के परे का सच उजागर कर जाता है.. अपने प्रतिबिंब को जर्जर मायूस देख, दोनों ही सिसकते हैं… पर पर्दे के पीछे, कुछ भी ज़ाहिर किए बिना… और अपनी अपनी वसीयत लुटा, फिर से भ्रम में आंखें चुराए, जीते रहने के प्रयास में जुट जाते हैं…
ऐसी कहानियां पसंद नहीं मुझे… संभावनाओं और संवेदनाओं को कुचल, मन मसोस जीते रहना, मज़बूरी नहीं, क्षणिक दुर्बलता है.. काश, नीरू और मनु, अपनी दुखती रगें छुपाते नहीं…
हां, फिल्म का अंत ज़रूर एक खुले दरवाज़े सा लगा, शायद कहानी और उसके किरदार किसी मोड़ पर फिर से जीना सीख पाएं….
Anupama
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