Hindi Poetry

प्रेमी

तुम शिद्दत से ढूंढ़ते रहे वो इंसान
जो मेरे होंठों पर मुस्कान
और आंखों में चमक ले आता है

तुमने मेरे आसपास के लोगों को टटोला
जानना चाहा कि कौन, कब, किस तरह
मेरी छोटी सी ज़िन्दगी में घुसपैठ बनाए है
कहां से छलकता है वो अमृत
जिसके घूंट भर से मैं जी उठती हूं
कहां है वो घटा, जो सिर्फ मुझ पर बरसती है

तुम आखेटक की होशियारी लिए, जाल बुनते रहे
खीझे, चिढ़े और शहद में लपेट ताने जड़ दिए

मैं नासमझ उपहार सरीखे उन्हें ढोती रही
समर्पण की पराकाष्ठा छू लूं तो शायद
तुम्हें पा सकूं का मंत्र जपती, पंख समेट, गीत दबा
किले में कैद केवल तुम्हारी प्रतीक्षा करती

अब आश्वस्त थे तुम, कहीं कोई नहीं

पर अब मैं भी वही कहां थी
खोई, सहमी, दबी, कुचली
अपनी परछाई सी
पर खुद नहीं

हैरानी नहीं कि ये बात तुम्हें भी खटकने लगी
सोचा “ऊपरी रंग उतर गया
तो कैसी बुझी बुझी है ये गुड़िया
अच्छा हुआ, मेरी आंखों ने जल्द भांप लिया”

काश! तुम जान पाते कि तुम्हारी समझ सिरे से गलत रही
चमक, चहक, जादू, बाहरी नहीं, आंतरिक था
एक अविरल धारा, मन के कपाट खोल, धीमे धीमे रिसती
वही बूंदें, जो अक्सर तुम्हें भी भिगोया करतीं
पर इतनी छोटी थीं कि तुम्हारी नज़र से फिसल जाती

काश! दो पल ठहर
मेरी आंखों से देखते खुद को
मैं और तुम से परे हम को जी पाते
पुरुष के अधिकार, स्त्री के कर्तव्य से परे
प्रेम की संवेदना लिए, सुपात्र हो पाते!!
Anupama

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