Articles / Review

प्रेमचंद विशेषांक: खुशबू मेरे देश की

मुंशी प्रेमचंद की कहानियां लगभग १०० वर्ष बीत जाने पर भी उतनी ही प्रासंगिक लगतीं हैं जितनी कि प्रकाशित होते समय रही होंगी। शायद उनकी लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण उनकी रचनाओं का किसी समय या परिस्थिति विशेष से परे, मानवीय संवेदनाओं और संबंधों से जुड़े होना ही है।

कुछ दिन पहले उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘ईदगाह’ का धारावाहिक रूप देखा था, गुलज़ार द्वारा निर्मित। कम उम्र के लड़के हामिद का अपनी दादी के लिए चिमटा खरीद कर लाना, मन को छू गया था। तब से कहीं एक दबी दबी सी जिज्ञासा इसे पढ़ने की थी।

अब यूं तो आजकल पढ़ने के लिए हजारों साधन मौजूद हैं और सोचते ही, किताबों को ऑनलाइन खरीद लेना, मेरी आदत। पर फिर भी मेरा दिल से मानना है कि किताबें कहानियां आपके जीवन में तभी आतीं हैं जब आप उन्हें पढ़ने समझने के लिए तैयार हो चुके हों, नहीं तो बुकरैक में धूल ही फांकती हैं और खजाने की चाभी हाथ में होते हुए भी, आप कुछ हासिल कर नहीं पाते।

कुछ ऐसा ही वाक़या घटा आज, जब मैंने प्रेमचंद की दो कहानियां ईदगाह और सैलानी बंदर, एक पत्रिका ‘खुशबू मेरे देश’ के जुलाई २०१७ के प्रेमचंद साहित्य विशेषांक में पढ़ी। पत्रिका कुछ समय से चुपचाप घर पर आती है। पर आज मालूम चला कि इसका आना कोई संयोग नहीं। शायद जाने अनजाने कुछ कहानियां मुझे ढूंढ रहीं थीं। सो जमकर बैठ गयी पढ़ने। और लपालप दो कहानियां व शिवानी देवी के ‘प्रेमचंद घर में’ के कुछ अंश उत्सुकता पूर्वक पढ़ गयी।

ईदगाह में बाल मनोविज्ञान कूट कूट कर भरा है। अक्सर हम बच्चों को नासमझ मानकर उनके सामने अपने दुख दिखाने से झिझकते हैं। कुछ दर्द वो सह नहीं पाएंगे ये सोचकर उन्हें भुलावे में रखने की पूरी कोशिश भी किया करते हैं। पर प्रेमचंद इन बातों से परे सुलभ सह्ज मन को भली भांति परख पाये। सो ईदगाह का मन छूना तो बनता ही है।

पर शायद ये कहानी उर्दू से हिंदी में अनुवादित है और चाहकर भी मुझे इसमें प्रेमचंद जी का वो भाषा शिल्प नज़र नहीं आया, जिसने मुझे गोदान और कायाकल्प में मोह लिया था।

पर वहीं ‘सैलानी बंदर’ ने खासा प्रभावित किया। मदारी और उसकी बीबी बुधिया, मन्नू को जिस प्यार से पालते पोसते हैं, उसकी उम्मीद तमाशे पर गुजर बसर करने वालों से कम ही होती है। और जानवर भी बच्चों से ही शरारती होते हैं और उनके नखरे, हम इंसान प्यार में कितनी खुशी खुशी उठाते हैं, बखूबी दिखा।

पर हां, जब सब कुछ अच्छा रहे तो जीव अधिक पाने को मचलने लगता है। कुछ ऐसा ही मन्नू के साथ भी हुआ। वह बिना सोचे समझे दरोगा साहब का बाग उजाड़ देता है और अपने साथ साथ मदारी मदारिन को भी नरक के द्वार पर खड़ा कर देता है।

कहानी बंदर पर केंद्रित होते हुए भी सहज मानवीय संवेदना का पटल नहीं छोड़ती। प्रेमचंद अपने कथाशिल्प से मन को यह यकीन दिलाने में कामयाब रहते हैं कि मन्नू का पुत्रवत व्यवहार अत्यंत स्वाभाविक है। बुधिया का पागल हो जाना अतिशयोक्ति ज़रूर लगी पर उसके दरोगा और बच्चों के साथ हुए संवाद, इस कहानी का स्तर कहीं ऊपर ले गये।

प्रेमचंद के कथा संसार की ये झलक अच्छी लगी। उन्हें पढ़ती रहूंगी और कुछ अंश आप सबसे साझा भी करती रहूंगी ‘खुशबू मेरे देश की’ का ये विशेषांक सराहनीय है।

पत्रिका : खुशबू मेरे देश की
शुल्क : २५ ₹

Leave a Reply