बहुत दिनों बाद सूरत देखी आज आईने में। निस्तेज चेहरा, आंखों के नीचे काले घेरे, फटे होंठ, रूखे बाल ! हैरां थी मैं उस अक्स को देखकर। क्या सचमुच ये हूँ मैं? वो हंसती-खिलखिलाती प्रीत कहां खो गई।
याद है न तुम्हें, मेरा नाम ! तुम्हीं ने बिगाड़ा था या यूं कहूं संवार दिया था। प्रतिमा अय्यर को प्रीत बना नया जीवन दिया था तुमने मुझे। सच, मूर्ति सी ही कैद थी मैं, अपनी बनाई सीमाओं के घेरे में। ऊंची-ऊंची दीवारों में लुकी- छिपी। पर तुम हवा के झोंके से आए, बादलों से बरसे और जाने किन सूक्ष्म दरारों को भेदते हुए नींव हिला गए मेरे सुरक्षित किले की।
चाहत के पंख फड़फड़ाने लगे, सोए नगमे गुनगुनाने लगे, दबे-सहमे भावों ने ज़ोर मारा और जाने-अनजाने भुला बैठी मैं अपनी सदियों पुरानी जंजीरे। मनभंवर गुंजन करता, प्रेम सोपानों की गहराई को अनदेखा करता, स्वपनलोक में डूबता चला गया।
समय थम सा गया था उन दिनों, होश ही न था, घंटे बीते या दिन। कभी लगता, घड़ी रूक चुकी है तो कभी पृथ्वी दोहरी गति से चक्कर लगाती सी दिखती। अलस्सुबह आंख खुल जाती, तपती दोपहर में तुम्हारे आने का बेसब्री से इंतज़ार करती ये आंखें, चौखट पर नज़रें गढ़ाए रखतीं। तुमसे मिले बिना न सांझ ढलती, न रात बीतती थी। जुदाई की घड़ियां पहाड़ सी भारी लगतीं और मिलन के पल, जाने कब पखेरू से उड़ जाते। स्वर्णिम अहसासों के क्षितिज पर जो उदयमान थे हम-तुम। बातों, सांसों, आहों में नित नए अर्थ तलाशते। दीन-दुनिया से परे अपने छोटे से घरोंदे में अनगढ़ कल्पनाओं को रूप देने की कोशिशों में गुम।
पर अनभिज्ञ थी मैं, जीवन की सच्चाई से। मूर्ति में प्राण फूंकना ही काफी न था, पल-पल नेह रूपी अमृत से सींचना भी होगा इसे, ये न तुमने समझा न मैंने। तुम अपनी चंद घड़ियों की शीतलता लिए विदा हुए और मैं अपनी कोमलता को कठोरता के आवरण में फिर से कैद करने में तत्पर। पीछे छूट गई तो बस अवसादों की लंबी रेल। शायद यही होना था अंत, दर्पण से झांकता ये बिखरा सा स्वरूप ! क्षणै-क्षणै जर्जर होती प्रतिमा, विसर्जन की बाट जोहती !!
Anupama
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