Hindi Poetry

प्रमाद

पक्ष विपक्ष तर्क वितर्क के तराजू में
भाव हल्के पड़ते जाते हैं
जर्जर होते तन और क्षीण पड़ते मन के
उद्गार कंठ में सिमटे रह जाते हैं

मंथर बुद्धि क्षिथिल धड़कन
कांपते हाथ फिसलते पांव
बढ़ती आयु के ही परिचायक नहीं
कहीं भीतर, गहरे, बहुत गहरे
रिसते घावों की टीस भी छुपाए बैठे हैं

बीते वक्त के साथ सुर ताल बिठाता मन
नियति को स्वीकारना चाहता है पर मानता नहीं
नैसर्गिक सौंदर्य को आत्मसात करता तन
उल्लासित हो चहकना चाहता है पर गाता नहीं
मौन की नीरवता को भंग करना
गहरे धंस चुके प्रमाद के बस की बात नहीं…..
Anupama Sarkar

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