Hindi Poetry

ज़हर

यहां की ज़मीं, यहां का आसमां
यहां की हवा, यहां का पानी
सब में बस ज़हर ही ज़हर भरा है।

हर आदमी खुद से परेशान,
दूसरों पर झुंझलाता यूं ही गुस्सा दिखाता।
सबसे आगे निकल जाने की धुन में
गिरता पड़ता ठोकरें खाता।

एक अजीब सा माहौल है यहाँ,
मेरी समझ से परे, तीखा खट्टा कसैला।
हो जैसे कोई मरूस्थल,
मृगतृष्णा में लिप्त कोई भटकता प्यासा।

बहुत तलाशा मैंने सुकून यहां
पर उसे न मिलना था ना मिला ही।
परेशान हो चढ़ बैठी मैं छत पे
दो पल चैन से जीने
ज़हरीली आबोहवा से निजात पाने।

पर आग के दरिये में मीठी ब्यार कैसे बहे?
दोज़ख़ के ठौर पे जन्नत की खुमार कैसे मिले?

आखिर वही हुआ जिसका डर था
छत का हाल भी न कुछ खास अलग था।
सामने श्मशान था,
अशांत अतृप्त आत्माओं का घर
मंडरा रहे थे चील कौवे और कबूतर।

कुछ शिकार बनते कुछ बनाते
ज़िंदगी की भागदौड़ में
मौत को परास्त करने
की विफल कौशिश करते
और लहराकर गिर जाते।

बहुत अधीर होकर आंखें बंद कर लीं मैंने
सोचा बदल नहीं सकती तो अनदेखा ही कर दूं।
दिल से इक सिसकी फूटी
अब सहन न होगा
बुला ले मुझे मेरे खुदा।

पर उसे कुछ और ही मंज़ूर था
मैंने हिम्मत छोड़ी थी
पर उसने साथ न छोड़ा था।

आंखें खोलीं मैंने, तो श्मशान के ठीक
सामने देवघर को पाया जहां मेरा भगवान
मुस्कुरा रहा था।
मुझे जीने की वजह बता रहा था।

वो चील कौवे सहसा मामूली अवरोध बन गए
कबूतरों की टोली का सफल विरोध बन गए।
सब अपना धर्म निभाते नज़र आए
फल की इच्छा से दूर निस्वार्थ कर्म करते
योगी से लगने लगे।

शायद मेरा दृष्टिकोण ही भ्रमित था
सत्य की आड़ में एक मिथक सा।

दुनिया वही है इसकी कारस्तानी भी वही
छल धोखा बेइमानी भी वही।
पर अब मुझमें कुछ बदलाव आया है
शांत हो गई है वो बेचैनी ।
हर सांस में इक आस है
स्वामी के पास होने का अहसास है।

मीठी तो न हुई ये ज़िंदगी
पर ज़हर की आदत सी हो गई!

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