Fiction

गुलाबी सुबह

उस ऊंची पहाड़ी की चोटी पर बाहें फैलाए खड़ी हूँ। तेज़ हवाओं से मेरे कदम लड़खड़ा रहे हैं। खुले बाल चेहरे से आंखमिचौली खेल रहे हैं। दुपट्टा गले में उलझ, किसी परिंदे सा आज़ाद होने को फ़ड़फ़ड़ा रहा है। दूर कहीं बन्दरों का कोई झुण्ड आपस की नोंक झोंक में शोर मचा रहा है। नीचे बहती नदी की कलकल उसके तेज़ बहाव की सूचना दे रही है। प्रकृति ठसक से मुझे मेरे ज़िंदा होने का अहसास दिला रही है।

पर मेरी नज़र आसमान पर टिकी है, उस गुलाबी सूरज पर, जो बस अभी-अभी रात के आगोश से उबरकर आया है। उनींदा सा है अब भी, पलकें सूजी हुईं, गाल भरे हुए। किसी गोलमटोल बच्चे सा मासूम। छूने का मन हो आता है और मैं हौले से अपना हाथ बढ़ा उसके माथे पर बिखरी लटों को परे करने लगती हूँ।

अचानक एक हरकत सी होती है, सूरज मेरे बेहद करीब है, उसकी गर्म साँसें मेरे गालों को छू रही हैं, उसका मज़बूत सीना मेरे बदन से सटा हुआ। मैं घबराकर आँखें खोल देती हूँ और खुद को पाती हूँ मखमली रज़ाई में नरम गद्दे पर, लम्बी तानकर सोते हुए। अचंभित हो इधर-उधर देखती हूँ। न पहाड़ है, न नदी, न बन्दर, न सूरज। बस मैं और तुम हैं, अपने घर में चैन की नींद सोते हुए।

पर, हाँ सुबह गुलाबी ज़रूर है, कोहरे की झीनी सी चादर उस बन्द खिड़की के परे, किसी फ़िल्मी सेट सी लग रही है। हवाएं भी सर्द हैं, कांच पर जमी ओस की बूँदें इस बात की हामी भर रही हैं। मैं करवट लेती हूँ और तुम्हारे शांत निश्छल चेहरे को ध्यान से देखने लगती हूँ। किसी बच्चे से ही मासूम लग रहे हो, दुनिया की सारी फ़िक़्र भुलाए, स्वप्नलोक में विचरते हुए। एक बार फिर छूने का मन हो आता है।

इसे प्यार का सम्मोहन कहें या विश्वास की अनदेखी डोरी, कभी कभी सोचती हूँ कि क्या कोई शब्द है भी तुम्हारे लिए मेरे पास या फिर बस इक एहसास हो तुम, जो कोहरे सा बेपरवाह उड़ता मेरी ज़िन्दगी में आया और आश्चर्यजनक रूप से मेरे जीवन का दमकता सूरज बन गया। और मैं अनजाने ही ढल गई उस धरा में, जिसकी धुरी केवल तुम हो, सुबह उठते ही तुम्हारा शांत चेहरा देखकर एक अजीब सा सुकूँ महसूसती हूँ। सारी दुनियादारी भूलकर एकटक देखती हूँ उन मुंदी पलकों को, जिनमे मेरा संसार बसा है। तुम्हारे उन्नत माथे, तीखी नाक और उभरे गालों पर हौले से उंगलियां फेरती हूँ। सिहरन सी उठती है तन बदन में, खुद से शर्मा जाती हूँ और कनखियों से देखती हूँ, तुम जग तो न गए कहीं। पर नहीं, तुम्हारे चेहरे पर शिकन की एक रेखा भी नहीं। है तो बस, बच्चों से निश्छल भाव जो तुम्हारे साधारण से चेहरे मोहरे को इक अलग ही कशिश दे जाते हैं। मुझमे ममता, प्रेम, वात्सल्य सब एक साथ उभर आता है और तुम्हारे माथे को हौले से चूम, रजाई कांधे तक ठीक से औढ़ा, मैं उठ जाती हूँ बिस्तर से, नई सुबह का खुली बाँहों से स्वागत करती।

गीज़र चलाकर सीधे किचन में जाती हूँ, चाय का पानी उबलना रखकर, बाथरूम की ओर बढ़ जाती हूँ। कड़क चाय के साथ तुम्हारी पसन्द के मुताबिक टोस्ट बनाऊँगी आज, सोचते हुए ठंडे पानी से मुंह ऑंखें धो बैठती हूँ। उफ्फ़, तुम्हारा जादू, मरवायेगा मुझे ठण्ड में, गुस्से में बिफरती हूँ और फिर खुद ही अपनी बेवकूफियों पर मुस्कुरा देती हूँ। तुमने कहाँ किया कुछ, तुम तो निद्रालोक में ध्यानमग्न हो, शांत मनोभाव लिए।

केतली से नाग की तरह बलखाता धुंआ मेरी तन्द्रा भंग कर देता है, अदरक इलायची की खुश्बू नथुनों में उन्माद भरने लगती है। अचानक से भूख जागृत हो उठती है मेरी। गर्म चाय नाश्ता लिए दबे पाँव वापिस कमरे में चली आती हूँ। रज़ाई ज़रा सी पीछे करती हूँ, और चाय का वो कप मज़बूती से थामे बैठ जाती हूँ। इंतज़ार करती हुई तुम्हारे आँखें मलकर उठने का, जब तुम प्यार से मुस्कुराते हुए गुड मॉर्निंग कहोगे और फिर तुरन्त त्यौरियां चढ़ा इलज़ाम धर दोगे, फिर से अकेले अकेले पी रही हो चाय, कभी हमें भी पूछ लिया करो। उफ़, तुम क्या जानो, इन मासूम तल्खियों का मज़ा !!

Leave a Reply