Fursat ke Pal

फोटोज़

अपना नाम और चेहरा किसे नहीं भाता… हमारा व्यक्तित्व दरअसल बहुत हद तक इसी बात से प्रभावित होता है कि हम खुद को कितना पसंद करते हैं… आज के सेल्फी युग ने चेहरे का महत्व और बढ़ा दिया है… जब मन चाहा, जहां चाहा, कैमरे में सूरत निहारी और खुद को मुस्कुराते हुए क़ैद कर लिया.. ये क़ैद कुछ इस क़दर भाने लगी है कि बेमतलब मुस्काना अब अटपटा भी नहीं लगता… पर आज सुबह जब बैटरी रिक्शा में ऑफिस जा रही थी तो इसका दूसरा रूप सामने आया… आज दिल्ली में बारिश होने से ठंडक बढ़ गयी, सांय सांय हवा भी चल रही थी और ऊपर से बैटरी रिक्शा की स्पीड से तो आप वाकिफ़ होंगें ही…

खैर, कुल मिलाकर मौसम मज़ेदार था और मैंने शॉल से सर मुंह कसकर ढंक रखा था.. अचानक नज़र बस स्टॉप पर खड़े दो लड़कों पर जा टिकी… जैकेट पहने, कंधों पर बैग लटकाये, कॉलेज जाने के लिये बस की इंतज़ार करते… पर उनकी नज़र सड़क पर नहीं हाथ में पकड़े फोन पर थी.. एक लड़का 45 डिग्री का कोण बनाये हाथ को थोड़ा ऊपर उठाये, परफेक्ट फोटोग्राफर की भूमिका निभाते हुए बटन दबाने पर ध्यान केंद्रित किये खड़ा था, और दूसरा, कूल डूड की छवि को बरकरार रखते हुए दाएं पाँव और बाएं पाँव में थोड़ा सा अंतर कर सर टेढ़ा किये मुस्कुरा रहा था…

आँखों ने देखा, दिमाग ने समझा और झट से ज़ुबां हौले से बुद्बुदायी “आत्ममुग्ध”… सेकंड भर बाद ही ध्यान आया ‘ओ री आत्ममुग्धा! तेरा हाल भी कुछ जुदा तो नहीं’… पर वो क्या है न, औरों को जज करने में हमारी बुद्धि चार कदम आगे ही रहती है.. अपनी गलती माफ़ी लायक और दूसरे की ग़ुनाह !!

खैर, अब दिमाग तो दिमाग ही ठहरा, ये घटना कहीं अटकी पड़ी थी सुबह से, अभी अभी किसी ने कहा, फोटोजेनिक हो, तो बस मैं चल पड़ी अपने बचपन की उन भूली बिसरी यादों में, जब फोटो लेना, स्क्रीन छू लेने भर का काम नहीं था… कैमरे में काले रंग का फिल्म रोल रोशनी से बचाकर लोड किया जाता, फ़्लैश को चार्ज और फिर परफेक्ट लाइट और फोकस को मद्दे नज़र रखकर, फाइनली बटन दबाया जाता था…

हमारे पास तब रशियन मेक का कैमरा और इम्पोर्टेड फ़्लैश लाइट थी… पापा ने नौकरी लगने के तुरंत बाद साल भर की कमाई में से सेविंग करके खरीदा था… वैसे भी, हम बंगालियों के लिए लक्ज़री में कैमरे का नम्बर ट्रेवल के ठीक बाद आता है.. सो, क्वालिटी पर ध्यान देना सर्वोपरि समझा गया था.. दूसरे कैमरों में 36 फोटो आतीं, पर इसमें आश्चर्यजनक रूप से रोल को आधा काटते हुए 72 फ़ोटोज़ ली जा सकतीं थीं…

अजी ज़्यादा इम्प्रेस मत होइए… सच्चाई तो ये है कि मुझे ये 72 फ़ोटोज़ अपनी जान की दुश्मन लगा करतीं… रोल खत्म ही नहीं होता था… और जब तक पूरा रोल खत्म करके, धुलवाकर, प्रिंट करवाकर घर नहीं लाया जाएगा, भगवान के सिवा और कोई नहीं जान सकता था कि फोटो असल में आयी कैसी…

मुस्कुरा लीजिये… पर सचमुच मेरी ज़्यादातर फोटो इतनी बुरी आतीं थीं, आँखें बंद, मुंह टेढ़ा या फिर भौंहें चढ़ी हुईं.. कि उन फ़ोटोज़ को देखकर अब लगता है फोटोग्राफर ने आखिर क्या सोचकर, उन्हें प्रिंट किया था ?? वैसे आते पैसे क्यों छोड़ता वो भी…

खैर, अब समय बदल गया, वो कैमरा घर पर पापा की निशानी के तौर पर है और हमेशा रहेगा, खट्टी मीठी यादों सा… पर अब भी जब कैमरे के सामने होती हूँ, तो वही पुराने बचपन के दिन याद आ जाते हैं, दिल की धक धक बढ़ जाती है, अंदर से कोई हड़बड़ाकर उल्टबाज़ियाँ खाते हुए, चिल्लाता है, खिंचने वाली है, खिंचने वाली है, खिंचने वाली है… थोड़ा तो मुस्कुरा ले… दांत अंदर करूं या बाहर रहने दूं, हाथ तो साइड में हैं न और पाँव उनका क्या… अगर मोटी आई तो, अजीब सा मुंह बन गया तो.. अरे थोड़ा रिलैक्स हो जा अनु, एक स्माइल तो बनती है… मैं भी न, जाने इतना क्यों घबरा रही हूँ, फोटो ही तो है, डिलीट करके दूसरी खिंच जायेगी, मेरी कसौटियों पर खरी उतरती हुई ?
Anupama
#fursatkepal

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