कभी कभी लिखना एक बंदिश सी होती है। जैसे सब बनावट हो कोई खलल है जिसे जी तोड़ पेपर पर उतारने की कोशिश की जा रही है। पर कोई रंग उभर नहीं रहा। कलाकृति को गढ़ने के लिए मूर्तिकार लगातार पत्थर पर वार पे वार किये जा रहा है पर मूर्ति आकार लेने की बजाय खंडित हो चूर चूर हो रही है।
एक असफल अनमना सा प्रयास कर रहा है लेखक जबकि खुद भी जानता है कि गाड़ी उतर चुकी पटरी से। दुर्घटना अब ज़्यादा देर तक टाली नहीं जा सकती। बढ़िया सी कलम हाथ में लिए, सजे धजे मेज़ कुर्सी पर महंगा सा लैम्प लगाए बैठे रहिए ठोडी पर हाथ टिकाए। ख्याल को तो जब आना है तभी आएगा। हमारे यहाँ तो पानी भी समय से नहीं आता इस आईडिया रूपी चितचोर का तो कहना ही क्या!
पर शायद यही तो मज़ा है लिखने का। जो बात लाख सिर धुनने के बावज़ूद समझ नहीं आ रही थी। अचानक से भीड़ में पिलते हुए अवतरित हो जाती है।
आप लदी झुकी ठसाठस भरी बस में एक पांव पर किसी तरह संतुलन बनाए खड़े हैं और अचानक कुछ विचार जागृत हो जाते हैं। जाने किस अंधेरे कोने में से टुपुक कर बाहर आ जाते हैं और कुरेदने लगते हैं अंतर्मन को। पहाड़ी नदी से बेकाबू हो उठते हैं।
अति आवश्यक हो जाता है इन्हें उसी समय कागज़ के एंकर से कसकर बांध देना। वरना जानते तो हैं ही नदिया है जाने कितने लवण खुद में घोले रंगहीन पानी सी बह रही है। चाहो तो इससे आचमन कर प्यास बुझा लो। चाहे डुबकी लगा तरोताज़ा तन मन पा लो। पर गुस्से में आई तो भरोसा नहीं इसका। कौन से गाँव डुबोएगी कितने मन भिगोएगी।
भला हो भाई टैक्नोलॉजी का! इस स्मार्ट फोन पर आढ़े टेढ़े ही सही मन के गुबार को निकाल तो पाते हैं कब तक कागज़ की चिटों में उलझे रहें।
वैसे कौन जाने क्या राज़ है इस लेखनी का। अबूझ पहेली सी लगती है। खुद में ही उलझती खुद ही रोगों का निदान ढूंढती। खैर हम ही कौन से आइंस्टाइन है जो फूल प्रूफ़ फार्मूला ढूंढ लेंगें। चलते हैं यूं ही इन ऊबड़ खाबड़ राहों पर कलम की कुदाल लिए, खजाना न सही, श्रम कर थोड़ा स्वास्थ्य लाभ ही उठा लेगें आखिर इस दिलोदिमाग की वर्जिश भी ज़रूरी तो है ही।
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