अपने सबसे करीबी रिश्ते से क्या चाहते हैं आप? प्यार, अपनापन, आपसी समझ, बिना शर्त आप जैसे हैं, वैसा स्वीकार कर लिया जाना?
शायद, इतनी सी ही आशा है सम्बन्धों से क्योंकि समाज से आप को ये सब मिलना असम्भव है। वहां तो मान मर्यादा के नाम पर बेड़ियां, ऊंच नीच के नाम पर गालियां और इज़्ज़त के नाम पर झूठी चमक दमक और चकाचौंध ही ज़रूरी। है न? पर सोचिए न, परिवार भी तो समाज की ही एक छोटी इकाई। बड़े से केक का छोटा हिस्सा अलग रंग, स्वाद, तरीके का कहां से होगा। जो लेयर्स, जो मास्क, आप सामाजिक रीतियों के नाम पर सदियों से औढ़े चले आ रहे हैं, उन्हें अपने निजी सम्बन्धों में घुसने से कैसे बचा पाएंगें?
आख़िर इंसान कितना ही चाह ले, कम्प्यूटर बनकर हर बात के लिए अलग फ्लो चार्ट फॉलो नहीं कर सकता। उसका रिस्पॉन्स बाय डिफॉल्ट अपनों के लिए भी वही और वैसा ही होता है, जैसा गैरों के लिए। क्योंकर एक स्वस्थ परिवार, सम्बन्ध, प्रेम, एक रोगी समाज में पल सकेगा? जहां हर व्यक्ति, इंसान होने से पहले मर्द, औरत, हिजड़ा है; हिन्दू, मुसलमान, ठाकुर, चौधरी, बामन, बनिया या मंझार है? कैसे न्याय कर पाएंगें आप अपने सहकर्मी के साथ, जब उसी की कम्युनिटी के लोगों को पानी पी पी कर कोसेंगें? कैसे सह पाएंगें अपने युवा होते बच्चे की सहज जिज्ञासा को, जब आप समाज में स्त्रियों और थर्ड जेंडर को सिर्फ और सिर्फ दैहिक उपयोग की चीज़ समझते हैं? क्या सचमुच बड़े होने के बाद आप अपने पिता का रसीद किया नाजायज थप्पड़ और गुस्सा कभी भूल पाते हैं या फिर अवचेतन में अपमानित हुए बच्चे की टीस को, अपने ही बच्चे और बीवी पर उड़ेलते हुए ज़िंदगी भर वैर निभाते हैं?
कितने सवाल हैं, जो उमड़ घुमड़ रहे हैं मन में… कितनी परतें हैं जो उखड़ जाना चाहती हैं… और कितने ही फलसफे अपनी बेचारगी पर कराह उठते हैं… आख़िर हम में से शायद ही कोई हो, जिसने कभी न कभी, न चाहते हुए भी बिल्कुल वैसे ही व्यवहार न किया हो, जैसे कभी खुद विक्टिम बनकर भोगा था। कुरीतियां इसलिए तो ज़िंदा रहतीं हैं समाज में, हमारा अवचेतन ही उन्हें पोषित करता है।
और अगर आप अपने अंतर्मन की कचोट को नज़र अंदाज़ न कर पाएं तो आप खुद को पाताल लोक के हाथी राम चौधरी की तरह एकदम लाचार पाते हैं। एक सरकारी मुलाज़िम जिसके हाथ सिस्टम ने बांध रखे हैं, जिसका मन बचपन में फ्रस्ट्रेट पिता ने छलनी किया और जवानी में बीवी बच्चे की अपेक्षा और उपेक्षा ने। एक मामूली इंसान जो ख़ुद से अयोग्य जूनियर को सीनियर बन जाने पर सलाम ठोक कर कुंठित होता है। और अपने से काबिल जूनियर को सिर्फ मजहब के कारण अपमानित होते देख कर शर्मिंदगी महसूस करता है।
यूं तो पाताल लोक, पुलिस और क्रिमिनल्स की कहानी है, जिसमें राजनीति का तड़का भी है और मीडिया का खोखला idealism भी। पर ये सिर्फ़ पहली नज़र में, डूबकर देखेंगे तो सिर्फ और सिर्फ मानवीय पक्ष उभर कर आएगा। केस की पेचीदगी, सबूतों की मारा मारी, न्याय अन्याय के अंतर, सब एक अंधे कुएं में कूद जायेंगें।
मैंने बहुत अवॉयड किया था पाताल लोक देखना, कारण था, शुरुआत में ही मां बहन की गालियों के जखीरे से दो चार होना। पर जब देखने बैठी तो समझ में आया कि ये अपशब्द तो सिर्फ़ ऊपरी सड़न है। जिस समाज में चाचा प्रॉपर्टी के लिए अपनी भतीजियों का रेप करवा देता हो, छोटी सी उम्र में सड़क पर यौन शोषण किया जाना आम सी बात हो, एक पिता का अपने बेटे की मौत का बदला उसकी मां के साथ गैंग रेप करके पूरा होता हो, वहां ये गालियां तो बस ऊपर नज़र आती काई का हरा रंग भर है, गंदगी तो कहीं अंदर तक भरी है।
कहानी नहीं बताऊंगी, वो तो पाताल लोक देख कर जान ही लेंगें आप, पर ये सब परतें न उधड़ी तो इस series का कोई मतलब ही नहीं। वंचितों को हाशिए पर रखे समाज का सच उधेड़ना इस वेब सिरीज़ की ज़बरदस्त सफलता है, जिसे थोड़ी नाटकीयता के साथ अंजाम दिया गया है। पर इसके साथ साथ हाई प्रोफ़ाइल रिपोर्टर्स और पॉलिटिशियंस और ब्यूरोक्रेट्स को भी बख्शा नहीं गया।
संजीव मेहरा का रोल निभाते नीरज कबी, अपनी सोफिस्टिकेशन के बावजूद, अपनी पत्नी के साथ बेहद rude हैं और हाथी राम अपनी शराब की आदत के बावजूद, अपनी पत्नी और बच्चे के साथ नरम और शर्मिंदा। मन की कई परतों पर एक साथ चोट की है पाताल लोक ने। शायद इसलिए अंत आते आते, आपकी सिंपथी अपना रास्ता भूल जाती है। 45 लोगों को मारने वाले हथोड़ा त्यागी से उतनी नफ़रत नहीं हो पाती जितनी चिढ़ संजीव का पासा बदल कर अन्याय का साथ देने से होने लगती है। आप भूलने लगते हैं गलत सही का अंतर। और अंत आते आते, एक्सेप्ट करने लगते हैं कि ये पूरी दुनिया “ग्रे” है, यहां किसी को पूरा सफ़ेद और पूरा काला, मान बैठना सिर्फ़ और सिर्फ़ धोखा है। हम सब बस अपनी स्थितियों, परिस्थितियों के अनुसार एक्ट रिएक्ट करते जाते हैं, और जाने अनजाने सिर्फ़ टूल्स बनकर रह जाते हैं। समाज की परीपाटियों और कुरीतियों को ढोते हुए भोथरे हथियार… अनुपमा सरकार
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