कड़कड़ाती बिजली गड़गड़ाते बादल
झमाझम बरसता निर्मल जल
और कहीं लुका-छिपा सा सूरज
खूबसूरत है दिन आज!
इन मेघों को खूब कोसा है मैंने
उलाहने भी दिए हज़ार
आते जाते जाने कितनी बार
देखा मुड़कर किया इंतज़ार
पर क्षितिज को छूने की
शिखर पर चढ़ने की ललक में
अनदेखा भी कर बैठी कई बार!
पर आज सब कुछ भूल
मेरे प्यारे बादल बरस रहे हैं
बस मिटाने धरा की प्यास
आखिर आसां तो नहीं
खुद की हस्ती मिटा
गर्म तवे पर बिखर जाना
बरसात खत्म होते ही
उमस का दोषी कहलाना!
मतलबी नहीं परमार्थ की मूरत हैं
ये समझ पाई मैं बस आज!!
(Published in Bhojpuri Panchayat Sep 14)
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