शरत चंद्र की परिणीता पढ़ते हुए लगा कि शायद पहली बार पढ़ रही हूं, बस प्रदीप सरकार की फिल्म का प्रभाव है जो कहानी जानी पहचानी लग रही है.. हर मोड़ पर लगा कि फिल्म कहीं बेहतर बनी थी, किताब में वो बात नहीं..
प्रभात प्रकाशन का हिंदी अनुवाद चुना था इस बार… ढेरों गलतियां नज़र के सामने से गुजरी.. बार बार अनुवादक का नाम जानने की उत्कंठा हुई, फिर लगा, भाषा शिल्प की ही गलती नहीं, शायद सचमुच परिणीता शरत दा का कमज़ोर उपन्यास है, श्रीकांत की कौन कहे, देवदास के सामने भी कहीं ठहरता ही नहीं… पर हां कहानी में संभावनाएं बहुत, और इसीलिए फिल्मकार के पास एक अच्छी मूवी बना सकने का भरपूर मौका…
हालांकि जब रिव्यू लिखने बैठी और अपनी वेबसाइट चेक की तो देखकर थोड़ी हैरानी हुई कि ये नॉवेल तो 2012 में भी पढ़ा था.. मेरे साथ ऐसा बहुत कम होता है कि मैं किताब पढूं और भूल जाऊं.. किसी न किसी पन्ने पर कहानी पूरी याद आ जाती है और मैं उसे दुबारा पढ़ नहीं पाती.. पर इस बार दिमाग गच्चा खा गया 😊
06 साल पहले जो इंग्लिश एडिशन पढ़ा था, उसका अनुवाद बढ़िया था, पर किताब को लेकर मेरा रिस्पॉन्स तब भी वही 🙂 कुछ बातें भाषा के परे होती हैं शायद…
जो मित्र रिव्यू पढ़ना चाहें, इस लिंक पर पढ़ सकते हैं, इंग्लिश वाले एडिशन का है, हिंदी में बिल्कुल भी नहीं भायी परिणीता…
Recent Comments