Fiction

पगली

हर तीसरे-चौथे दिन वो अस्पताल के गलियारे में दिख जाती। बेतरतीबी से लपेटी मैली-कुचैली साड़ी, उलझे बाल, टूटी चप्पल में समय से पहले ही बूढ़ी हो चुकी सूनी आंखों में अपना दर्द छुपाए, आते-जाते लोगों को निरीह भाव से ताकती रहती। नाम तो पता नहीं, सब पगली ही कहते थे उसे। दीन-दुनिया से परे जा चुके इंसान पर इसके अलावा कोई नाम फबता भी तो नहीं।

साल होने को आया था, उसे इस इलाके में दिखते। शायद पहले कहीं और भटकती रही हो या कौन जाने सचमुच किसी घर की बेटी-बहू-मां रही हो। पर अब केवल दया की पात्र थी। वार्ड ब्वाय, नर्स, डाक्टर सब पहचानने लगे थे उसे। पर्ची कटाने की दरकार भी न होती। बस, डांट-डपट कर फर्श पर बिठा, घाव साफ कर के पट्टी बांध दिया करते। चोट कब लगी, कैसे लगी, पूछने का फायदा नहीं था। हर बार, एक ही जवाब मिलता, कुत्ते ने मारा। वैसे, आम पागलों से कुछ हटकर ही थी वो। पत्थर जैसी शांत, इस एक जुमले के अलावा कुछ बोलती ही न थी।

पर, हाँ, कभी-कभी हंसी-ठिठौली में कोई कुत्ते का रंग, किस्म वगैरह पूछ लेता तो पगली को दौरा सा पड़ जाता। पुतलियां फैल जातीं, हाथ-पांव तेजी से पटकते हुए, दहाड़ें मारकर रोने लगती। बड़े डाक्टर साहब को शोर-शराबा कतई पसंद नहीं था, इसलिए अब छोटे कर्मचारी भी सजग हो चले थे। न के बराबर ही पूछताछ होती उससे। दिन ढलने पर पगली को उसके हाल पर छोड़, सब अपनी डयूटी निभाकर चले जाते। वो अस्पताल से निकल कर कहाँ जाती है, क्या करती है, न कोई जानता था और न ही जानने की ज़रूरत थी। वैसे भी तीन-चार दिन में वो लौट ही आती थी, जिस्म पर नया घाव लिए।पर, आज कुछ अलग हुआ था। पगली गेट पर ढेर पड़ी थी, पथराई आंखों से अस्पताल को निहारती, ज्यों वहाँ पहुंचने की आस में ही दम तोड़ चुकी हो। पास ही एक कुत्ता रो रहा था। शायद पगली को डर जानवरों से नहीं लगता था।
Anupama

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