मैं उन्हें पढ़ने से बचती रही.. गाहे-बगाहे दोस्त उनका लिखा पढ़ते, सराहते… इस तरह मुझसे उनका आंशिक परिचय हो जाया करता… बेहद सरल शब्दों में सहजता से वे जो कुछ भी कहते, मैं अवाक हो पढ़ती कि यही तो, बस यही तो, मुझे भी कहना था… कैसे मेरे मन की बात वे इस तरह बिना मुझे जाने-पहचाने लिख सकते थे…
हमारी मुलाक़ात संभव नहीं थी… हम अलग काल, देश, परिस्थितियों के बाशिंदे थे.. कह सकते हैं हमारे बीच बहुत अंतर था, हमारी राहें, हमारा जीवन कुछ भी एक सा नहीं… पर इसके बावजूद शायद हमारा प्लेन ऑफ़ एक्सीस्टेंस समान था.. किसी बिंदु पर हमारे मन बिल्कुल एक से थे, एक जैसा सोचते, एक जैसी बात अनुभव करते… यूँ मन का मेल किसी परिचय का गुलाम होता भी नहीं.. या फिर कहें कि दुनिया के इस मेले में limited permutations combinations ही हैं, कहीं न कहीं, कभी न कभी, एक सा न सोचना, प्रोबेबिलिटी के नियमों के ख़िलाफ़ होगा..
पर फिर भी निर्मल वर्मा का लिखा हर बार झंझोड़ जाता है मुझे… और शायद यही कारण है कि उन्हें पढ़ने से बचती रही अब तक, कि कहीं इस बात से हतोत्साहित न हो जाऊं कि जो बातें अब तक मैं लिखने की केवल सोच रही हूँ, वो कब की लिखी जा चुकीं.. कि कुछ भी नया नहीं यहाँ, केवल पुनरावृति है… वही बातें, वही अनुभव, वही जीवन, फिर-फिर जीना है हमें…
फिर भी कहीं मन में फुसफुसाहट सी हो रही है कि लेखन और लेखक इतने भी पारदर्शी नहीं कि कुछेक शब्दों से ही हम उनकी शख्सियत का अंदाज़ा लगा लें.. ये करना स्बेड उतना ही हास्यास्पद होगा जितना किसी इंसान से आप दो बार मिले, दोनों ही बार उसने पीले कपड़े पहनें हों, और आप झट इस निष्कर्ष पर पहुंच जाएं कि पीला उसका फ़ेवरिट कलर है.. नहीं, परतें हैं मन में, लेखन उन्हें सामने ज़रूर लाता है, पर किसी पूर्वनियोजित क्रमबद्ध तरीके से नहीं… और उन परतों के बीच भी इतने महीन छिद्र हैं, कि आरपार देख, यह अंदाज़ा लगाना कि आपको जो दिख रहा है, वह रोशनी है या प्रतिबिंब आसान नहीं.. बहुत कुछ कहना, समझना बाकी है अभी..
Anupama
#fursatkepal
निर्मल जी के एक आंशिक लेख को पढ़कर उपजे कुछ विचार
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