Fursat ke Pal

निमिष

शाम के शानों पर उसे ढुलकते देख, मन पुलकित हो उठता है… जब वो नकचढ़ा सूरज, थका मांदा, धीमे धीमे घर को निकलता है… मैं मंत्रमुग्ध सी उसके साथ हो लेती हूं.. ढूंढ़ ढूंढ़ लाती हूं चंदन की बाती… मधुर मुस्कान अधरों पर सजाए, बालती हूं, संध्या की प्रीत… सुरभित ध्रूम में, जी लेती हूं इक पल.. कहीं गहरे, बहुत गहरे, हौले से इक धड़कन, बेताल दौड़ पड़ती है.. पायल की झंकार सा बज उठता है तन.. धोंकनी सी दहकती धमनियां, थम जाती हैं.. निमिष मात्र को मूंदती हूं पलकें.. इडा पिंगला, भूल जाती हैं अपना होना.. इक क्षण, सांस के आने और जाने के बीच का वो अविस्मरणीय पल, सुषुम्ना की द्रुत गति.. और खो जाना अनन्त में…ज्वलंत अगर के शांत होने तक, जी आती हूं कई जन्म… शाम के शानों पर उसे ढुलकते देख, पुलकित है मन… Anupama
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